जब चौथा स्तंभ थियेटर बन गया

May 12, 2025 - 08:00
 0  2
जब चौथा स्तंभ थियेटर बन गया

जब हमारी भारतीय सेना सीमाओं पर अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर अत्याधुनिक हथियारों, मिसाइलों और फाइटर जेट्स के माध्यम से राष्ट्र की रक्षा में जुटी है, तब देश की मुख्यधारा मीडिया—जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाती है—मानों नैतिकता और सत्यनिष्ठा की ज़मीन छोड़कर किसी भव्य नाट्यशाला के मंच पर उतर आई है।

 इस मीडिया का व्यवहार आज उस थ्रिलर ड्रामा की तरह हो चला है जिसमें पत्रकारों की भूमिका संवाददाता की न होकर एक स्क्रिप्टेड अभिनेता की है, जो उत्तेजित शब्दों, बनावटी भावनाओं और नकली आक्रोश के ज़रिए दर्शकों की संवेदनाओं से खेल रहा है। यह दृश्य किसी न्यूज़रूम का नहीं, बल्कि एक “न्यूज़ थिएटर” का हो गया है, जहाँ सूचनाओं की प्रस्तुति नहीं, बल्कि कल्पना और अभिनय का प्रदर्शन होता है। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई कि इन मीडिया अभिनेताओं की इतनी ‘तगड़ी परफॉर्मेंस’ देखने को मिली कि भारत सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा—उन्हें मीडिया गाइडलाइंस जारी करनी पड़ीं। सरकार को साफ निर्देश देना पड़ा कि जितना अभिनय पत्रकारिता के दायरे में अनुशंसित है, वे उतना ही करें—अन्यथा वे पत्रकार नहीं, नुक्कड़ नाटक के भेष में भ्रम पैदा करने वाले कलाकार प्रतीत होंगे, जिनका उद्देश्य जनजागरण नहीं, जनविमूढ़ता है। विडंबना यह है कि ये वही लोग हैं जो दिन-रात दूसरों के चरित्र और आचरण पर निर्णय सुनाते हैं, जबकि खुद का व्यक्तित्व हर शाम बदलते मुखौटे जैसा होता जा रहा है।

जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते हैं—एक मूल्यवान, दूसरा मात्र धातु—उसी प्रकार आज की मीडिया में भी दो पक्ष उभर आए हैं: एक जो जिम्मेदारी के साथ समाज को दिशा देता है, और दूसरा जो टीआरपी के नशे में मंच पर अपने अभिनय की तालियाँ बटोरता फिरता है। दरअसल, यह केवल एक पत्रकारिता का संकट नहीं, बल्कि जनमानस की बौद्धिक चेतना का भी इम्तिहान है। मीडिया जैसा देखेगा, वैसा ही समाज सोचेगा—यह नियम केवल सिद्धांत नहीं, व्यवहार में भी उतना ही प्रभावशाली है। लेकिन जब न्यूज़ स्टूडियोज़ से अधिक ज़ोर "धमाकेदार ब्रेकिंग" और "धारावाहिक बाइट्स" पर दिया जाए, जब देशहित के गंभीर प्रश्नों पर ध्यान देने की जगह 'सेलिब्रिटी ड्रामा' और 'राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप' का राग गूंजे, तब लोकतंत्र की नींव डगमगाने लगती है। जिस मीडिया की भूमिका कभी नागरिकों के मन में सवाल जगाने की थी, वह अब उन्हें केवल मनोरंजन परोसने वाला यंत्र बनता जा रहा है। एक ऐसा यंत्र जो दिन-रात यह तय करता है कि किस नेता का चेहरा 'देशभक्ति' के फ्रेम में फिट बैठता है और किसका विरोध करना 'राष्ट्रविरोध' कहलाएगा। ऐसे माहौल में प्रश्न पूछना अपने आप में अपराध बना दिया जाता है। यह स्थिति मात्र एक विचारधारा की नहीं, एक समूची प्रवृत्ति की उपज है।

जब पत्रकारिता, सत्ता का दर्पण बनने के बजाय उसका मुखौटा बनने लगे, तब चेत जाना चाहिए। मीडिया का सबसे बड़ा धर्म है ‘प्रश्न’—और यदि कोई माध्यम प्रश्नों से बचता है, तो वह पत्रकारिता नहीं बल्कि प्रचारतंत्र है। इतिहास गवाह है कि जब-जब मीडिया ने सत्ता से दूरी बनाकर जनता के बीच संवाद कायम किया, तब उसने क्रांति रची है; और जब वह सत्ता के करीब गया, तब वह जनमत को गुमराह करने का औज़ार बन गया। वर्तमान दौर में सबसे ज़रूरी है कि नागरिक स्वयं मीडिया के इस बदलाव को समझें और उससे जागरूक सवाल करें। क्योंकि यदि दर्शक विवेकहीन बनता है, तो मीडिया भी उथला होता जाता है। मीडिया को फिर से अपना मूल कार्य याद दिलाने की आवश्यकता है—न कि वह कौन सा चेहरा कितना बोल रहा है, बल्कि यह कि क्या वह सत्य बोल रहा है। अब समय है कि हम पत्रकारिता को 'प्रेस' की भूमिका में वापस लाएं, न कि 'परफॉर्मर' की। पत्रकारिता का मूल्य टीआरपी से नहीं, समाज के विवेक से तय होता है।

जब तक दर्शक अपने सवाल पूछने के अधिकार को जीवित नहीं रखेगा, तब तक 'न्यूज़ थिएटर' का यह तमाशा चलता रहेगा। ऐसे में अब नागरिकों की सबसे बड़ी देशभक्ति यह होनी चाहिए कि वे अपने विवेक का इस्तेमाल करें और समाचार को समाचार की तरह देखें, न कि मनोरंजन के मंचन की तरह। मीडिया की साख वही लौटेगी, जब पत्रकार फिर से संवाददाता बनेंगे, अभिनेता नहीं। और जब दर्शक फिर से जागरूक नागरिक बनेंगे, उपभोक्ता नहीं। यही पत्रकारिता का पुनर्जन्म होगा—नए भारत की एक जरूरी शर्त।

अवनीश कुमार गुप्ता साहित्यकार, स्वतंत्र स्तंभकार, और शोधार्थी