कांशीराम कैसे बने दलितों के मसीहा, उनकी जयंती पर विशेष

उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति के मसीहा बने कांशीराम का जन्म पंजाब के रूपनगर में हुआ था. 15 मार्च 1934 को जन्मे कांशीराम की विरासत को आज भले ही केवल यूपी में बहुजन समाज पार्टी और मायावती तक जोड़कर देखा जाता है, पर इसकी शुरुआत महाराष्ट्र से हुई थी। दरअसल, कांशीराम महाराष्ट्र में पुणे की गोला-बारूद फैक्टरी में क्लास वन अफसर थे. वहीं पर जयपुर (राजस्थान) के दीनाभाना चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे।
दीनाभाना वहां एससी/एसटी वेलफेयर एसोसिएशन से भी जुड़े थे. दीनाभाना का अपने सीनियर से आंबेडकर जयंती पर छुट्टी के लिए विवाद हुआ तो उनको सस्पेंड कर दिया गया था. दीनाभाना का साथ महाराष्ट्र के डीके खापर्डे ने दिया तो उनको भी निलंबित कर दिया गया। इस घटनाक्रम की जानकारी कांशीराम को हुई तो उन्होंने ठान लिया कि बाबा साहेब की जयंती पर छुट्टी न देने वाले की छुट्टी करने तक चैन से नहीं बैठूंगा. इसके बाद कांशीराम लड़ाई में उतरे तो उनको भी निलंबित कर दिया गया. इस पर उन्होंने निलंबित करने वाले अफसर की पिटाई कर दी। इसके बाद दीनाभाना नौकरी में बहाल हुए तो उनका स्थानांतरण दिल्ली कर दिया गया. वहीं, कांशीराम सोचने लगे कि जब उनके जैसे अफसरों पर इस कदर अन्याय होता है तो बाकी दलितों-पिछड़ों का क्या हाल होगा. इस पर उन्होंने नौकरी छोड़ दी. इसके बाद उनके पास समय ही समय था।
दीनाभाना जिस एससी/ एसटी वेलफेयर एसोसिएशन से जुड़े थे, कांशीराम को उसका अध्यक्ष बना दिया गया. इसी बीच, उनको लगा कि सिर्फ एससी/एसटी के लिए काम करने से काम नहीं चलेगा. कुछ बदलाव लाना है तो एससी/एसटी, ओबीसी और दूसरे अल्पसंख्यकों को भी जोड़ना होगा। फिर 6 दिसंबर 1973 को एक ऐसा संगठन बनाने के बारे में सोचा गया, जिसके जरिए सबके लिए काम किया जा सके. इसी दिन 6 दिसंबर 1978 को दिल्ली में राष्ट्रपति भवन के सामने स्थित बोट क्लब मैदान पर बैकवर्ड एंड माइनोरिटी कम्युनिटीज एम्प्लाइज एसोसिएशन (बामसेफ) की औपचारिक स्थापना की गई. इस संगठन के बैनर के नीचे कांशीराम और उनके साथ के लोगों ने दलितों पर अत्याचार का विरोध शुरू किया. कांशीराम ने दिल्ली के साथ ही महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश तक दलित कर्मचारियों का मजबूत संगठन बनाया। साल 1981 में कांशीराम ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस4) का गठन किया।
साल 1983 में डीएस4 ने एक साइकिल रैली की. इसमें संगठन की ताकत दिखाई दी, जिसमें तीन लाख से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया था. साल 1984 तक आते-आते कांशीराम एक पूर्णकालिक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता बन गए और बीएसपी की स्थापना की. वामसेफ ने कांशीराम के समय तक बसपा के लिए उसी तरह से काम किया, जैसा बीजेपी के लिए आरएसएस करता है। साल 1992 के दौर में जब भाजपा राम मंदिर आंदोलन के साथ हिंदुत्व कार्ड खेल रही थी, बीएसपी दलितों को समझाने में लगी थी कि उसकी बिरादरी से भी मुख्यमंत्री बन सकता है. कांशीराम साल 1995 में इसमें कामयाब भी हो गए और मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. हालांकि, मायावती जितनी तेजी से उत्तर प्रदेश में आईं, उसी तेजी से केवल एक जातिगत चेहरा बनकर रह गईं. कांशीराम का शुरू किया गया दलित आंदोलन केवल सोशल इंजीनियरिंग तक सीमित रह गया. साल 2006 में कांशीराम का निधन हो गया पर उसके तीन साल से अधिक समय पहले से ही वह सक्रिय नहीं थे।
कांशीराम भले ही मायावती के मार्गदर्शक थे और उन्होंने कांशीराम की राजनीति को आगे भी बढ़ाया. बहुजन समाज पार्टी को राजनीति में एक शक्ति के रूप में भी खड़ा किया. इन सबके बावजूद मायावती कभी भी कांशीराम के समान एक राजनीतिक चिंतक नहीं बन पाईं।