चिठिया हो तो ...... विजय गर्ग

कागज पर कलम से लिखी चिट्ठियां महज चिट्टियां नहीं होतीं, ये अपने समय का दस्तावेज होती हैं, जिसमें अनुराग, पीड़ा, आत्मीयता, स्मृति, उम्मीद, बिछोह का दुख, मिलन की आस, समकालीन लोक संस्कृति सब कुछ होता है। एक-एक शब्द में हजारों भावों की गठरी बंधी हुई होती है। पुराने समय में दूर देशों में रह रहे हमारे आत्मीयजनों की चिट्ठियां जब आती थीं, तो उन्हें पढ़ते हुए लगता था जैसे वे सामने बैठ कर हमसे अपनी बात कह रहे हैं, बस दिखाई नहीं दे रहे हैं ।
इसीलिए नई नवेली दुल्हनें परदेस गए पिया की और प्रेमिकाएं अपने प्रेमियों की चिट्ठियां बार-बार पढ़ती थीं। वह भी सबसे छिप कर कि कहीं चिट्टियों में अंकित उनके इस छिप कर मिलने के उछाह को कोई देख न ले। पहले की पीढ़ी को पता होगा कि किसी की चिट्ठी के इंतजार में कितनी खुमारी, कितना रोमांच और कितनी तड़प होती है । और जब चिट्ठी हाथ में हो, तो हर्ष के अतिरेक से देह हल्की होकर हवा तैरने लगती है। ये होता है पत्र लिखने का जादू और पाने का आनंद। बड़े दुख की बात है कि मोबाइल युग में पैदा हुई पीढ़ियां इस जादुई आनंद को कभी महसूस ही नहीं कर पाईं। सच कहा जाए तो पत्र लिखना एक कला है । जब हम अपने दिल की बात को कागज पर लिखते तो वह बात पढ़ने वाले की स्मृति में कहीं गहरे तक अंकित हो जाती है। वह हमारे 'चैट बाक्स' में लिखी बातों से कहीं ज्यादा स्थायी और प्रभावी होती है। हाथ से पत्र लिखने का असर हमारे दिमाग पर भी पड़ता है। मसलन, लिखते वक्त हमारा दिमाग एकाग्र होता है। जिस तरह हम कागज-कलम उठा कर व्यवस्थित तरीके से लिखने बैठते हैं, ठीक उसी तरह हमारा दिमाग भी लिखी जा रही उस बात को अपने अंदर व्यवस्थित कर रहा होता है।
एक तरह से यह हमारे दिमाग की कसरत भी हुई। नई तकनीक लोगों को लिखने से वंचित कर रही । लिखने से छुट्टी पाकर या लेकर हम खुश भी हो रहे । इस छुट्टी के कुछ फायदे गिनाए जा सकते हैं। लेकिन ऐसा लगता है यह छुट्टी हमारी भावनाओं से भी हमें दूर कर रही है। हम सोच सकते हैं कि भला जो भाव हम अपने हाथों से लिख कर पत्र पर उकेर सकते हैं, क्या वह वाट्सऐप संदेश में भर सकते हैं । कतई नहीं। डिजिटल संदेश जितनी जल्दी लिखे जाते हैं, उतनी ही जल्दी उनका प्रभाव भी मिट जाता है। हाथ से लिखे पत्रों की अहमियत की बात करें, तो महान लोगों के पत्र आज भी देश की धरोहर माने जाते हैं। उनका बाकायदा अध्ययन मनन होता है। कोई बड़ा व्यक्ति किसी आम आदमी को हाथ से पत्र लिख कर भेजे, तो वह पत्र उसकी अनमोल संपदा का हिस्सा बन जाता है । वह उसे जीवन भर संभाल कर रखता है। मशीनी शब्दों में जीवित भावनाओं का अभाव - सा रहता है। अपनी बेटी इंदिरा गांधी को जवाहरलाल नेहरू ने जो चिट्टियां लिखीं, वह न सिर्फ एक कालखंड का इतिहास थीं, बल्कि भविष्य की अमानत भी बन गईं। मगर आज डिजिटल युग में सब कुछ टंकित हो गया है । हमें पत्र के नीचे बने सिर्फ हस्ताक्षर को देख कर संतोष करना पड़ता है, नब्बे के दशक में टीवी रेडियो पर अनेक कार्यक्रम ऐसे थे, जिनमें दर्शकों और श्रोताओं से चिट्ठियां मंगवाई जाती थीं । सुरभि कार्यक्रम में प्रस्तोता के पीछे लगे चिट्ठियों के ढेर को भला कौन भूल सकता है । रेडियो पर फरमाइशी गानों के लिए जब चिट्ठियां लिखी जाती थीं, तो उनमें कार्यक्रम और प्रस्तोताओं के लिए अपने लगाव का भी इजहार किया जाता था ।
कितनी प्यारी और मीठी बातें लिखी होती थी। जिन्हें पढ़ते हुए कई बार महिला रेडियो सखी भी खुश हुए बिना नहीं रह पाती थीं । कुछ समय पहले डायरी विधा में लिखी हुई किताब पढ़ रही थी- 'बंजारे की चिट्टियां' । डायरी भी एक तरह का पत्र ही है। अपने ही नाम लिखे पत्र । लेखक ने रेत के हर कण को, रोशनी को, सांझ के अंधियारे को, सूरज को, चंदा को, वक्त को, दर्द को, दोस्त को, दुश्मन को और उसकी निगाह में आने वाली हर शय को इन चिट्टियों में उतार दिया था । ऐसे, जैसे सब जीवित होकर पढ़ने वाले के साथ चल रहे हों। ऐसे, जैसे राजस्थान में चलने वाली आंधियां हमारे चेहरे से टकरा रही हों। ऐसे, जैसे समय हमको छू रहा हो । जैसे समय को हम महसूस कर रहे हों। ये होती है चिट्टियों की ताकत । चिट्टियों में लिखे भावों की ताकत को और समझना है तो 'नाम' फिल्म की उस गजल को सुनना चाहिए- चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई है। इस गजल को गाते हुए कई बार पंकज उधास रो देते थे । आज जब हर ओर डिजिटल माध्यमों का शोर है, वीडियो और रील में दिखावे की धक्का-मुक्की है, डिजिटल की जमीन पर संवेदनाओं का अकाल और धोखाधड़ी की बाढ़ है, फटाफट आए वाट्सऐप चैटबाक्स, ईमेल के डिजिटल संदेशों को पढ़ते-पढ़ते दुनिया उकता और थक गई है, तब भावों से भरे, कामनाओं से सजे, लगावों से लिखे और संभावनाओं से संवरे एक अदद पत्र की अहमियत और भी बढ़ गई है। काश कि कलम से कागज पर चिट्ठियां लिखने का चलन फिर से लौट आए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब