पहलगांव हमला: पूरे समाज को दोषी ठहराना नहीं, इंसानियत को पहचानना ज़रूरी है : सेवक फरियाब खान

पहलगांव हमला: पूरे समाज को दोषी ठहराना नहीं, इंसानियत को पहचानना ज़रूरी है : सेवक फरियाब खान
फर्रुखाबाद। हाल ही में पहलगांव में हुए आतंकी हमले ने हमें एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। दुख की बात यह है कि इस हमले के बाद कुछ लोग पूरे मुस्लिम समाज को निशाना बना रहे हैं, जबकि ज़मीनी सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। सेवा समिति फर्रुखाबाद के संस्थापक/अध्यक्ष फरियाब खान इस घटना की कठोर निंदा करते है और बताते है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब गोलियां चल रही थीं, तब कई कश्मीरी मुस्लिम भाई-बहनों ने अपनी जान की परवाह किए बिना टूरिस्टों को सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाया, घायलों की मदद की, उन्हें पानी पिलाया और उनके लिए दवाइयों का इंतज़ाम किया।
ऐसे वक़्त में जब जान बचाना सबसे बड़ी प्राथमिकता होती है, तब उन्होंने इंसानियत की मिसाल पेश की। कश्मीरी मुस्लिमों ने साबित किया है कि आतंकवाद का मुकाबला केवल सेना या पुलिस नहीं करती, बल्कि आम लोग भी मोहब्बत और इंसानियत के ज़रिए इसका जवाब देते हैं। हमें चाहिए कि नफ़रत फैलाने वालों की बातों में न आएं, बल्कि उन हाथों को मज़बूत करें जो मदद के लिए आगे बढ़ते हैं। आतंकियों का मकसद ही यही होता है कि समाज में नफ़रत फैले, हम आपस में लड़ें। अगर हम पूरे समुदाय को दोषी ठहराएंगे तो हम वही करेंगे जो वो चाहते हैं। लेकिन अगर हम एकता दिखाएँ, इंसानियत को सबसे ऊपर रखें — तो यही उनकी हार होगी। जब गोलियां चलीं, तब कश्मीरी मुसलमान ढाल बनकर खड़े थे पहलगांव में हुए आतंकी हमले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। एक ओर आतंक के साए में चीख-पुकार थी, गोलियों की आवाज़ थी, और डर का माहौल… वहीं दूसरी ओर कुछ लोग थे जो बिना डरे, बिना सोचे, बस इंसानियत के लिए खड़े थे। जी हां, उन टूरिस्टों की जान बचाने वाले, उन्हें सुरक्षित जगह तक पहुँचाने वाले, खून से लथपथ घायलों के लिए पानी और दवा लाने वाले — वही कश्मीरी मुस्लिम थे जिन्हें अब कुछ लोग पूरे समाज के गुनहगार की तरह देख रहे हैं।
क्या यह न्याय है? आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। उनका मकसद होता है डर फैलाना, लोगों को बांटना, हमारे बीच नफ़रत की दीवार खड़ी करना। लेकिन जब हम पूरे मुस्लिम समाज को दोषी ठहराते हैं, तो हम न चाहते हुए भी उसी नफ़रत का हिस्सा बन जाते हैं जो वे फैलाना चाहते हैं। ज़रा सोचिए — जब गोलीबारी हो रही थी, तब गुलाम नबी नाम के एक कश्मीरी मुस्लिम ने अपनी दुकान बंद की और दौड़कर टूरिस्ट फैमिली को अपने घर में शरण दी। एक और स्थानीय नौजवान, फैयाज अहमद, ने एक घायल बच्चे को अपनी बाइक पर बैठाकर हॉस्पिटल पहुँचाया। क्या हम उन्हें भी उसी नजर से देखेंगे, जिससे हम आतंकियों को देखते हैं? यह वही घाटी है जहां अमरनाथ यात्रियों के लिए कश्मीरी मुसलमान हर साल लंगर लगाते हैं, ठंड में कंबल देते हैं, रास्ता दिखाते हैं।
ये वही लोग हैं जो हर संकट में टूरिस्टों की तरह-तरह से मदद करते आए हैं — सिर्फ इसलिए नहीं कि वो हिन्दू हैं या मुसलमान, बल्कि इसलिए क्योंकि वो "इंसान" हैं। आज ज़रूरत है नफ़रत की आवाज़ों को जवाब देने की — प्यार, समझदारी और एकता के ज़रिए। हमें आतंकियों के मंसूबों को नाकाम करना है, और वो तभी होगा जब हम एक-दूसरे पर भरोसा करेंगे, नफ़रत की नहीं, इंसानियत की बात करेंगे। क्योंकि आख़िर में, धर्म कुछ भी हो — खून का रंग एक ही होता है।