रोटियां दिखा कर भूंखे बालक को-- इतनी दूर ले गया कोई--
रोटियां दिखा कर भूंखे बालक को-- इतनी दूर ले गया कोई--
कि लौटते बक्त बालक घर ही भूल गया-- मोम सी मासूमियत जरा सी तपिश में-- पिघल जाती है आग उगलती धूप में-- इतनी दूर ले गया कोई-- कि लौटते बक्त बालक अपनी पहचान ही भूल गया-- ये किसके पास हैं अपार रोटियां-- आंचल के दूध से कोई खींचकर-- कि ममता ही चुरा कर ले गया-- दौड़ते दौड़ते बो जाने कब बड़ा हो गया-- झोपड़ी से निकला कोई-- कि ऊंचे मकानो में गुम गया--
नन्हे पांव और परिस्थितियों के बो नुकीले रास्तों पर दौड़ते दौड़ते जाने कब बचपन पीछे रह गया पता ही नहीं चला- हर अपराध और मानुष से अमानुष के परिवर्तन में कुछ तो खास एसा होता है जिसे हर कोई नहीं देख सकता है,देख सकता है तो सिर्फ उसके बदलते व्यबहार को पर उसके अंदर बदलते इंसान को नहीं कि मानुष में अमानुष आया कैसे काश हम इसमें झांकने की कोशिश करते तो शायद बचपन की ये भूंख न बदलती न इंसान जो पानी की जगह खून और रोटी की जगह बोटी और मनोरंजन की जगह बेटी
-- हमारी दौलत हमसे ही छीन कर बो रात और दिन में हमसे बड़ा आदमी बनने का जुनून नहीं जागता उसमें जिंदगियां छीन कर बो हमारी मानुष से कातिल नहीं-- अगर उसकी मासूम भूंख को नन्हे पांव नुकीले रास्तों पर रोटियां दिखा कर-- समाज में एसे गुप्त सौदागर भी अमीरी और इंसानियत का चोला पहन कर रहते है कि बेटी और बेटा का बचपन माता पिता की गोद से छीनकर कहीं मजदूर तो कहीं बेटियों के जिस्म का धंधा करा रहे हैं कितनी मासूम बेटियों का अपहरण जो आज तक लापता हो गई और पता भी नहीं चला कि जिंदा है या मर गई मासूमियत में जहर डाल कर दिमागी प्रोग्रेस का सीधे यौवन--मासूम बेटे आज आप अपने आस पास कहीं भी और कभी भी देख सकते हैं किसी भी ढावा दुकान कबाड़ी का धंधा करते हुए हर जगह पर दिखाई दे जाते हैं और हमारे सिस्टम ने तो बहुत पहले से बाल मजदूरी पर रोक लगा रखी है
-- सच इस मासूम मानुष के जीवन की तबाही के माता-पिता समाज और सिस्टम सभी गुनहगार है,यह भी नहीं कि गरीबी इतनी है कि बच्चों को पढ़ाने लिखाने की बजाय मजदूरी करने को मजबूर किया जाए पर एसा ही है, परिवर्तन कहां नहीं हुआ है और किस रिश्ते से अछूता रह गया वैसे तो आज हर व्यक्ति पैसे के पीछे भाग रहा है पर मध्यम परिवारों की मानसिकता में पैसे का जितना महत्व है शिक्षा और बच्चों के भविष्य पर नहीं,बस सुबह से बच्चों को भेजकर मजदूरी के लिए--इतना अगर सोचा होता कि हमारा बच्चा पूरे दिन चंद सिक्कों के लिए किन हालातों से गुजर रहा होगा तो न बचपन गुलाम होता न रिश्ते खराब होते कभी- उन्हें तो बस साम को कितने पैसे लाया है की जरूरत है काश कभी यह भी सोचा होता कि चंद सिक्कों ने जीवन का बो अमूल्य हिस्सा ही छीन लिया जहां से इंसान का सफर शुरू होता है पर यहां तो सारे दिन बड़े बड़े आदमियों की जूठन साफ की कही जूते तो कहीं कहीं घरों में झाड़ू पौछा-अमीरों के बचपन में गरीब का बचपन किस सोच से बड़ा होगा की मात्र कल्पना भी हम करते तो मानुष समाज में जंगली भेड़िए कभी नहीं।
-- समय रहते गर घर से लेकर सिस्टम तक इनकी मासूमियत को नजर भर देख लिया होता तो आज छोटे छोटे हाथों में बड़ी बड़ी बोतल और मुंह से चोकलेट की जगह, सिगरेट स्मोकिंग के छल्ले नहीं निकलते इन मासूमों के मुंह से-सौतेली परवरिश में पलती मासूमियत की सोच में अगर एक लक्ष्य मानव होता तो अमानुषी जीवन-- जो आज नरसंहार और हाथों में हथियार कभी नहीं होते कौन कहता है कि गरीबी जाति और धर्म देखकर आती है,अगर हमारे अंदर थोड़ा भी रहम और सहयोग की भावना हो तो हम एक दूसरे का सहारा बन सकते हैं लेकिन हम तेरे मेरे की खींचतान से खुद हमसे में के पीछे दौड़ कर आगे लक्ष्य हीन रास्तों पर निकल पड़े हमने एसे भी अरब-खरब पति देखे हैं।
जिनके न आगे न पीछे कोई फिर भी उस दौलत पर मणिधारी की तरह जिंदा बैठे और मरने के बाद उस दौलत को एसे निठल्ले खाते हैं कि मरने बाला अगले जन्म को भी स्वयं के कर्मों से गधे की योनी-- सच कहा है किसी ने कि जहां दिल बड़ा होता है-- वहां दौलत नहीं होती है-- और जहां दौलत होती है-- वहां कफन में जेब की मांग होती है-- आंखों को आंखें रहने दो-- दिल को दिल नजरिया पवित्र रहने दो-- हम इंसान हैं मत भूलो-- अपनी पहचान जिंदा रहने दो-- क्या पता है हमें कि,हम जा कहां रहे हैं-- लेखिका-पत्रकार-दीप्ति चौहान।✍️





