डिजिटल भंवर के दायरे विजय गर्ग

इसमें कोई संदेह नहीं कि तकनीक ने जीवन को सरल और सुविधाजनक बना दिया है, लेकिन इसने हमें वास्तविकता से कितना दूर कर दिया है, अब यह अपने आसपास भी महसूस किया जाने लगा है और इस पर सोचने की जरूरत है। आज का युग डिजिटल क्रांति का युग है।
जमीन पर इसका असर इस रूप में भी सामने आ रहा है कि आजकल जो भी हमारे जीवन में घटित होता है, उसे कैमरे में कैद करने की होड़- सी मची रहती है। चाहे वह कोई खूबसूरत दृश्य हो, कोई खास लम्हा हो या फिर कोई भावनात्मक क्षण, हम उसे पूरी तरह महसूस करने से पहले ही अपने मोबाइल फोन या कैमरे में संजोने में लग जाते हैं। यह किस हद तक सही है या गलत, इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं है, लेकिन इतना जरूर है कि कैमरे में कैद की जाने वाली तस्वीरें सिर्फ दृश्य को सहेज पाती हैं, अनुभव को नहीं । कभी-कभी लगता है कि यह दुनिया पूरी तरह से आनलाइन हो गई है। रिश्ते, भावनाएं, संवाद - सब कुछ डिजिटल मंचों पर सिमट कर रह गया है। हम आनलाइन लोगों से जुड़ने में इतने व्यस्त हो गए हैं कि हमारे आसपास जो लोग वास्तव में हमारे साथ हैं, उनकी अहमियत को नजरअंदाज करने लगे हैं। एक समय था जब परिवार के सदस्य एक साथ बैठकर बातें किया करते थे, हंसी-ठिठोली होती थी, किस्से-कहानियां सुनी और सुनाई जाती थीं।
लेकिन अब सुबह उठने से लेकर रात तक हमारी आंखें मोबाइल स्क्रीन पर ही टिकी रहती हैं। बदलते दौर के साथ रिश्तों की परिभाषा भी बदल गई है। पहले जहां परिवार के बड़े-बुजुर्ग बच्चों को कहानियां सुनाते थे, वहां अब मोबाइल और टैबलेट ने उनकी जगह ले ली है। दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां, जिनमें जीवन के गहरे अनुभव और नैतिक शिक्षा हुआ करती थी, अब वह रुचि खत्म हो गई लगती है और लोगों की नजर मोबाइल के ऐप और संक्षिप्त वीडियो में सिमट गई है। बच्चे अब 'पबजी', 'टेंपल रन', 'फ्री फायर' जैसे आनलाइन खेलों में इतने डूबे हुए हैं कि उन्हें असली दुनिया की कहानियों, परिवार की गर्मजोशी और इंसानी जज्बातों की पहचान ही नहीं रही । मगर बात सिर्फ बच्चों तक सीमित नहीं है। आज के युवा भी सोशल मीडिया, इंस्टाग्राम, फेसबुक और वाट्सएप में इतने मशगूल हो गए हैं कि उन्हें अपने परिवार और दोस्तों के साथ बिताए गए पल कम और आनलाइन टिप्पणियां और उस पर प्रतिक्रियाएं ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगती हैं। किसी समारोह में जाने के बाद हमें यह कम याद रहता है कि हमने वहां क्या महसूस किया, किन लोगों से मिले, किससे क्या बात की, लेकिन हमें यह जरूर याद रहता है कि हमने कितनी अच्छी तस्वीरें कैमरे में उतारीं और सोशल मीडिया पर उस पर पसंदगी के कितने चटके मिले।
यह सचमुच चिंताजनक है कि धीरे-धीरे हम संवेदनाओं को खोते जा रहे हैं। अगर कोई पास बैठा हो और उदास हो, तो हम उसे देखने के बजाय यह सोचते हैं कि उसकी उदासी के बारे में सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणी है या नहीं। असल में आनलाइन दुनिया ने हमें इतना आत्मकेंद्रित बना दिया है कि हम अपने आसपास के लोगों के दर्द, उनकी खुशियों, जरूरतों से बेखबर होते जा रहे हैं। जमीनी या वास्तविक रिश्तों की चमक कम होती जा रही है। एक समय था जब रिश्ते भावनाओं के धागे से जुड़े होते थे, अब वे इंटरनेट की रफ्तार और नेटवर्क पर निर्भर हो गए हैं। पहले दोस्त एक-दूसरे से मिलते थे, घंटों बातें करते थे, एक-दूसरे की परेशानियों में साथ खड़े रहते थे। अब वाट्सएप पर 'तू ठीक तो है' लिखकर भेज देना ही दोस्ती निभाने का सबूत बन गया है। पहले लोग अपने दुख-दर्द, अपनी खुशियां, अपनों के साथ बांटते थे, अब वे इन्हें 'इंस्टाग्राम' पर लिख देते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके आनलाइन मित्र उनकी भावनाओं को समझेंगे । इस डिजिटल युग में हम धीरे-धीरे अपने आसपास के लोगों से दूर होते जा रहे हैं।
हम बस ' आनलाइन उपलब्ध' हैं, लेकिन वास्तविकता में 'इमोशनली अनअवेलेबल' यानी भावनात्मक रूप से अनुपलब्ध होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया के आभासी रिश्तों ने हमारे असली रिश्तों की गर्मजोशी को धीरे- धीरे खत्म कर दिया है। पहले जब कोई रिश्तेदार घर आता था, तो हम उसे सम्मानपूर्वक बैठते थे, उनसे बातें करते थे। आज के दौर में कोई आता है, तो सबसे पहले 'वाई-फाई पासवर्ड' पूछा जाता है। हमें यह भी समझना होगा कि हम सिर्फ 'खुद को ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी को भी इस डिजिटल भंवर में धकेल रहे हैं। बचपन में जो प्रेम, अपनापन और साथ की अहमियत हम महसूस करते थे, वह अब धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। यह देखकर डर लगता है कि आने वाली पीढ़ी संवेदनशीलता के बिना ही बड़ी हो रही है। रिश्ते निभाने के लिए अब समय और भावनाओं की जगह सिर्फ आभासी शब्द और 'इमोजी' रह गए हैं। समय रहते अगर हमने खुद को नहीं बदला, तो आने वाले समय में इंसान संवेदनाओं से पूरी तरह दूर हो जाएगा। हमें यह समझना होगा कि सोशल मीडिया सिर्फ एक माध्यम है, जीवन नहीं । असली खुशी तस्वीरों में नहीं, बल्कि उन लम्हों को महसूस करने में है । किसी जगह पर जाकर फोटो खींचने से ज्यादा जरूरी है कि उस जगह की हवा को महसूस किया जाए। डिजिटल संसार में रिश्ते शुरू हो सकते हैं, लेकिन संवेदनाएं आनलाइन नहीं हो सकतीं।
संवेदनाओं को महसूस करने, उन्हें संजोने और उन्हें जीवंत बनाए रखने के लिए असली दुनिया में रहना जरूरी है । इसलिए, कभी- कभी फोन को थोड़ा दूर रखकर, अपनों के साथ समय बिताना जरूरी है। वरना वह दिन दूर नहीं जब हमारी यादें सिर्फ स्मार्टफोन के किसी कोने में तो होंगी, लेकिन हमारे दिल में नहीं ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब