76, गणतंत्र दिवस के कार्मिक त्याग, कुर्बानी,और मानवता के संगठित शक्ति के पावन पर्व पर--
,76, गणतंत्र दिवस के कार्मिक त्याग, कुर्बानी,और मानवता के संगठित शक्ति के पावन पर्व पर-
- क्यों जश्न में आंखें भरी-- क्यों तिरंगे में नमी-- बारिशें बर्फी नहीं- फिर क्यों धरा में है नमी-- आज गणतंत्र दिवस के पर्व पर है--- जब पर्व नाम आता है तो हजारों सवाल जहन में आ बैठते हैं और कहते हैं आखिर ये जश्न है क्या और किस बात का- तब आज के हालातों की जो तस्वीर आंखों में धंसी हुई है उस पर सवाल तो सबसे पहले हमारे पूर्वजों की आत्माएं करने को विबस है और क्यों नहीं हो क्या इसी देश और आवाम के लिए हमने अपने परिवार अपने जान और देश की आन-बान शान के लिए कुर्बानी दी थी,
आज तिरंगा भी पूछता है कि हम जिसकी सांसों पर फहराते हैं देश की धरा पर बो हमारे वीरों की कुर्बानी का ताज हैं,हमारे अपने ही देश वासियों के बदलते परिवेश की तराजू वीरों की लासों और धरा के सीने पर रखी हुई है जिसकी एकता और स्वतंत्रता के लिए हमने मिलकर भाईचारे बोए थे जिस धरा पर आज हमारे कर्म के टुकड़े टुकड़े होते देख रहे हैं,पूछतीं हैं बो मांए जिसके खाली आंचल में अपने सपूतों की यादों में त्याग संघर्ष की जब बो तबाही कूहूक की आवाज में ताजा सुनाई देती है तो सूखे आंचल में दूध उतर आता है पर पीने बाली बो ममता नहीं होती है तो धरा पर बह जाता है फिर वही हौसला मां के आंचल को समझा देता कि तेरे आंचल का दूध आज हम धरा की जुवानी पी रहे हैं मां-- पूछती हैं बो बहनों की सूनी मांगें जो आज धरा पर बिखरा हुआ है ताजा लाल सिंदूर बो चूड़ियां लहू में रंगी टुकड़ों में सवाल करती हैं आखिर क्यों और किस के लिए--
बच्चे जो पिता की सुरक्षा और परवरिश से दुलार से दूर जब उनके कुर्बानी को आंखों में नमी भरकर कहते हैं पापा आप आज भी हमारे साथ है और खींचती है बो राहें बो मंजिलें आपकी उंगलियां पकड़ कर जैसे बचपन में आपने धरा का पहला स्पर्श कराया था आपके उन्हीं बढ़ते नक्शे-कदम पर हम चलते आ रहे हैं लगता है आप हमारे आगे है और हम आपके पीछे पीछे-आपने हमारे लिए अपने कर्म की जैसे पहले से ही मंजिलें बो दी है जब तिरंगे को देखते हैं तो सर गौरवशाली हौसले से ऊंचा हो जाता है और हमें आपके नक्शे-कदम पर चलने को ले जाते हैं कि हमारे पापा इसी पथ पर चल कर हमें मंजिलें दे गए हैं हम आपके कार्यों को कभी मरने नहीं देंगे और वतन की सुरक्षा में आपकी वही जोश और जवानी को भर कर आपकी और अपनी सामिल कहानी लिखेंगे-- आपकी कमी को आंखों से बहने नहीं देंगे-- आपका अंश हूं आपका गौरव-- आंखों से बहने नहीं देंगे-- तिरंगा आपकी पहचान है-- आपकी पहचान को--
आंखों के पानी से बहने नहीं देंगे-- आज हमारे युवाओं और देश के हर नागरिक को समर्पित हमारा यह लेख है- दूर तक जा चुके हैं हम-- बहुत दूर तो नहीं-- लौट आओ कि-- इतने दूर भी नहीं-- धरा की आंखों की नमी हमारे जाते पांवों मे लिपट कर-- वतन की मिट्टी अपने वीरों की लहू में सनी फिर वही कहानी लिख रही है-- कि लौट आओ कि इतने दूरी भी नहीं है।
लेखिका-पत्रकार-दीप्ति चौहान।