सेहत का साथ
 
                                सेहत का साथ
विजय गर्ग
एक बार मिली जिंदगी में जाहिर है शरीर भी एक बार ही मिलता है। शरीर ही इंसान के अंत तक साथ उसका देता है । जो दुर्लभ और महासदुपयोगी वस्तु एक बार ही मिली हो, उसे बेइंतहा प्यार करना चाहिए। बच्चों के शरीर की देखभाल का जिम्मा अभिभावकों का होता है। वे अपनी आर्थिक व्यवस्था के सांचे में ही नहीं, पारिवारिक आदतों के खांचों में बच्चों की देखभाल कर पाते हैं। बच्चे अभिभावकों से प्रेरणा लेकर दूसरे बच्चों की सोहबत में पड़ोस और स्कूल की खेलकूद गतिविधियों में सक्रिय होकर शारीरिक देखभाल करने लगते हैं।
इसमें पैदल चलना, साइकिल चलाना और अनेक बाहरी खेल महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे बच्चे चुस्त और व्यस्त रहते हैं, लेकिन ऐसा कम परिवारों में हो पाता है। भले ही अड़ोस-पड़ोस में ऐसी सुविधाएं उपलब्ध हों तो भी शारीरिक देखभाल के प्रति ज्यादातर परिवारों में उदासीनता रहती है । कई बार शादी से पहले कोई व्यक्ति दुबला होता है। आमतौर पर यह महिलाओं के मामले में देखा जाता है । मगर शादी के बाद रहन-सहन और खानपान बदलने की वजह से इस स्थिति में बदलाव आ सकता है।
दरअसल, शादी से पहले जीवन का जो प्रारूप अपनाया गया होता है, वह ससुराल के नए माहौल, पति की आदतों के मुताबिक दिनचर्या बदलने, नई जगह के जलवायु आदि के कारण बदलता है। सूझबूझ से समन्वय स्थापित कर लिया जाए तो अपने तन को व्यवस्थित रखा जा सकता है। अपने शरीर को रोका जा सकता है। यह ठीक है कि अनेक मामलों में आनुवांशिक जीन्स हमारे शरीर को संभालने या बीमार करने में अहम भूमिका निभाते हैं, जिनमें से मोटापा शरीर ही नहीं, जिंदगी को भी परेशान करता है। कई बीमारियों का कारण बनता है । फिर चाहे कुछ कर लिया जाए, जितनी मर्जी ताकत की गोलियां खा ली जाएं, सूप या जूस पी लिया जाए, मोटापा अधिकांश जिंदगियों से वापस नहीं जाता। यह बात दीगर है कि सेहत की दुनिया के कारोबारियों ने मोटापा कम करने के नाम पर करोड़ों का उद्योग चला रखा है, लेकिन स्वस्थ, पतला होना आसान नहीं है ।
शरीर रूपी प्राकृतिक वृक्ष पर मोटापे की सख्त बेलें लिपट जाएं तो कष्टदायी साबित होती हैं। सामान्य परिवारों में जिन महिलाओं को घर का कामकाज संभालना पड़ता है, वे पति, बच्चों यहां तक कि सास-ससुर का भी ध्यान रखती हैं और आमतौर पर अपने शरीर की बिल्कुल परवाह नहीं करतीं। उनके शरीर में धीरे-धीरे बीमारियां घर करती जाती हैं। दवाइयां स्वस्थ रहने का सहारा बनती चली जाती हैं । कुछ लोग अक्सर कहते हैं कि समय नहीं मिलता, लेकिन हममें से ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जिनके पास टीवी पर चल रहे कार्यक्रम देखने का समय होता है । इसी तरह स्मार्टफोन पर रील या अन्य सामग्री देखना अब एक जरूरी काम मान लिया गया है।
फोन पर बतियाने की फुर्सत खूब होती है। अगर संजीदा सलाह दी जाए कि सुबह कुछ देर सैर कर लिया करें, दौड़ लिया करें तो ऐसी बातें उन्हें फालतू बात लगती हैं। अनेक लोगों को लगता है कि स्वस्थ और आकर्षक शरीर के लिए जिम जाकर व्यायाम करना जरूरी है । उसी हिसाब से पोशाक, विशेषकर विदेशी पोशाकें और उपकरण उन्हें खूब आकर्षित करते हैं । जिम में व्यायाम करने वालों से इस बात को लेकर ईर्ष्या होती है कि वे अपनी सेहत और शरीर को लेकर कितने सजग हैं। मगर सिर्फ जलन से क्या हो पाता है। ।
कुछ घरों में उपकरण आ जाते हैं, लेकिन कुछ दिन प्रयोग करने से शरीर में कुछ बदलाव नहीं आ पाता, क्योंकि मोटापा या फिर कहा जाए कि शरीर का बिगड़ता अनुपात ठीक करने के लिए ठोस व्यायाम, नियंत्रित खानपान और ज्यादा समय जरूरी होता है। हम बेचैन लोग एक सप्ताह में ही पतला, आकर्षक, सुगठित शरीर वापस चाहते हैं जो सिर्फ फिल्मों में संभव हो सकता है। नतीजन, उपकरण घर के किसी कोने में उदास खड़ा रह जाता है । दरअसल, जिम में व्यायाम करने की शैली के लाभ तो बताए जाते हैं, मगर एक तरह से उसे अप्राकृतिक भी कहा जा सकता है।
कुदरत को हमने जीभर कर नुकसान पहुंचाया और शारीरिक व्यायाम के लिए प्राकृतिक और बिल्कुल मुफ्त तरीके भी पसंद नहीं करते। इस संदर्भ में भोजन की खास भूमिका है। विशेष कर परिवर्तित किए हुए खाने का । दुनिया में हैरान कर देने वाले नकली स्वाद हाजिर हो चुके हैं। जीभ को अलग-अलग स्वादों के पीछे भागने की आदत लग चुकी है। यहां फिर साबित होता है कि हम अपने शरीर से प्यार नहीं करते, बल्कि शरीर से लाभ उठाना चाहते हैं, उसी तरह जैसे किसी स्वादिष्ट, मनपसंद मिठाई या खाद्य से । हम लापरवाही तब मानते हैं, जब डाक्टर के पास पहुंचने की नौबत आती है।
तब दिमाग सोचता है कि काश खानपान का ध्यान रखा होता, उचित व्यायाम किया होता। अनेक मामलों में खासी देर हो चुकी होती है । जिंदगी में जो होना है, वह होता है। इस तरह की सोच भी हमें अपने प्रति उदास, असक्रिय, लापरवाह हो जाने के लिए प्रेरित करती है। साथ ही बढ़ती सुविधाओं ने भी जिंदगी को नुकसान पहुंचाया है। कम सुविधाओं में शरीर बेहतर संयमित रहता है।
सहनशक्ति बढ़ती है। शरीर को मेहनत का जितना प्रसाद खिलाते रहा जाए, शरीर उतना ही अनुशासित रहता है । शरीर को प्यार करने का मतलब आरामतलब बनना, नकली प्रसाधनों से सजाना, सभी कुछ खाना-पीना नहीं है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 







 
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                             
                                             
                                             
                                             
                                            