Article : क्या प्रतिबंध ही समाधान? ऑस्ट्रेलिया के सोशल मीडिया कानून पर बहस
क्या प्रतिबंध ही समाधान? ऑस्ट्रेलिया के सोशल मीडिया कानून पर बहस
■ सुनील कुमार महला
सोशल मीडिया पर न्यूनतम आयु को लेकर हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने बच्चों और किशोरों के सोशल मीडिया उपयोग से जुड़े नियम/कानून (सोशल मीडिया राज फोर चिल्ड्रेन) में एक अद्भुत और दुनिया-भर में चर्चित बदलाव किया है। दरअसल,ऑस्ट्रेलियाई संसद ने आनलाइन सेफ्टी अमेंडमेंट (सोशल मीडिया मिनिमम ऐज) एक्ट-2024 पास किया है, जो वास्तव में आनलाइन सेफ्टी एक्ट -2021 में एक संशोधन है। पाठकों को बताता चलूं कि इस कानून के तहत सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए खाता (अकाउंट) रखना या बनाना प्रतिबंधित होगा। वास्तव में आस्ट्रेलिया का यह कानून सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को बाध्य करता है कि वे 'जिम्मेदार कदम' उठाएं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि 16-साल से छोटे बच्चे उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर खाते(अकाउंट) नहीं रख सकें। दूसरे शब्दों में कहें तो कंपनियों पर जिम्मेदारी है कि वे 16 से कम उम्र के बच्चों को अपने प्लेटफॉर्म पर रखने से रोकें और अगर वे ये 'रेस्पान्सिबल स्टेप्स'(जिम्मेदार कदम) नहीं उठाते हैं, तो उन्हें सीधे अदालत द्वारा भारी जुर्माने (सिविल पेनल्टीज) यानी कि लगभग 49.5 मिलियन आस्ट्रेलियाई डॉलर(लगभग ₹30–35 करोड़ तक) का सामना करना पड़ सकता है,जो बहुत बड़ी धनराशि है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इन विभिन्न प्लेटफार्म्स में क्रमशः फेसबुक, इंस्टाग्राम,टिकटोक, स्नैपचैट,रेडिट, थ्रेड्स,ट्विच,एक्स(पूर्व में जिसे ट्विटर कहा जाता था), यू-ट्यूब,किक जैसे कई मुख्य सामाजिक नेटवर्क(ऐज रेस्ट्रिक्टेड सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स) में शामिल हैं।कुछ एप/सेवाएं जिन्हें प्राथमिक रूप से संदेश भेजने, गेमिंग या शिक्षा/सहायता के लिए डिज़ाइन किया गया है (जैसे यू-ट्यूब किड्स, व्हाट्स एप, डिस्कार्ड इत्यादि), फिलहाल अलग हैं। गौरतलब है कि यह नियम आस्ट्रेलिया में 10 दिसंबर 2025 से लागू हो गया है। अच्छी बात यह है कि यह कानून सीधे बच्चों या उनके माता-पिता/संरक्षकों को दंडित नहीं करता है तथा इसका लक्ष्य बच्चों को सजा देना नहीं, बल्कि सोशल मीडिया कंपनियों को जिम्मेदार बनाना है।इस संबंध में सरकार का यह कहना है कि यह कदम बच्चों को ऑनलाइन नुकसान, मानसिक दबाव, अवरुद्ध/हानिकारक सामग्री और अत्यधिक इंटरनेट उपयोग से सुरक्षित रखेगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह कानून बच्चों की मानसिक स्वास्थ्य, डिजिटल कल्याण, और ऑनलाइन खतरों से सुरक्षा पर केंद्रित है। बहरहाल,यह बात बिल्कुल सही है कि आज इंटरनेट के कारण पूरी दुनिया बहुत ही छोटी हो गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो इंटरनेट ने दुनिया को जितना नज़दीक लाया है, उतना ही लोगों को वास्तविक रिश्तों से दूर भी कर दिया है,इसमें कोई दो राय नहीं है।
आभासी दुनिया(वर्चुअल वर्ल्ड) की अनगिनत सोशल मीडिया साइटों ने सीमाओं से परे संवाद का दायरा तो निश्चित ही बढ़ाया है, लेकिन इसके समानांतर यह भी एक कड़वा सच है कि वास्तविक जीवन में लोग एक-दूसरे से कटते गए हैं। आज यदि हम स्वयं अपने घरों में ही देखें तो चार लोग अपने अपने एंड्रॉयड फोन या लैपटॉप पर व्यस्त रहते हैं और एक-दूसरे से बातचीत या संवाद तक नहीं करते, जबकि पूरी दुनिया से वे लगातार आभासी रूप से जुड़े होते हैं। स्थिति यहां तक है कि पड़ोस के बच्चे ऑनलाइन दोस्त भी हों, चैट करते हों या साथ में गेम खेलते हों, फिर भी संभव है कि वे आमने-सामने कभी न मिले हों। यानी वर्चुअल दुनिया में बच्चों का दायरा बढ़ता है, पर ज़मीन पर उनका अकेलापन गहराता जाता है। यही अकेलापन धीरे-धीरे उनके मन में घर कर जाता है और उन्हें बहुत बार अवसाद, तनाव और कभी-कभी तो आत्मघाती प्रवृत्ति(सुसाइड) तक पहुंचा देता है। कई बार किसी ऐप में उलझे बच्चों के मानसिक संकट, व्यवहारिक बदलाव और आत्महत्या जैसी दुखद खबरें आए दिन मीडिया की सुर्खियों में हमारे सामने आती रहती हैं। सोशल मीडिया पर अत्यधिक सक्रियता के मानसिक और शारीरिक दुष्प्रभावों को देखते हुए दुनिया भर में बच्चों के लिए सोशल मीडिया के उपयोग को सीमित या प्रतिबंधित करने की मांग समय-समय पर उठती रही है। इसी कड़ी में ऑस्ट्रेलिया ने बड़ा कदम उठाते हुए 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया के उपयोग पर 10 दिसंबर 2025 यानी कि बुधवार से पूर्ण प्रतिबंध लागू कर दिया है।
हालांकि, संदेश भेजने और गेम खेलने वाले कुछ प्लेटफ़ॉर्म्स को इस नियम से बाहर रखा गया है। इस सख्त कानून से अब यह उम्मीद की जा रही है कि बच्चों को उनका खो रहा बचपन वापस मिल सकेगा।लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह प्रतिबंध लागू कैसे किया जाता है और बच्चे वास्तव में सोशल मीडिया के जाल से दूर रह पाते हैं या नहीं, क्योंकि डिजिटल माहौल में बच्चे अक्सर वैकल्पिक, और कई बार अनुचित, रास्ते ढूंढकर किसी भी ऑनलाइन मंच तक पहुंचने में सक्षम हो जाते हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह पाबंदी कितनी प्रभावी साबित होती है। साथ ही, अगर उम्र की पुष्टि के लिए बच्चों से कोई पहचान-पत्र या अन्य दस्तावेज मांगे जाते हैं, तो उसकी सुरक्षा, गोपनीयता और संभावित दुरुपयोग से जुड़े नए प्रश्न अनिवार्य रूप से खड़े होंगे। कुल मिलाकर, कदम ठोस जरूर है, पर उसके वास्तविक परिणाम समय और क्रियान्वयन ही तय करेंगे। यह भी कि ऑस्ट्रेलिया ने 16 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने के लिए दुनिया का जो पहला कठोर कानून लागू किया है, उसका उद्देश्य उन्हें साइबर बुलिंग, फेक न्यूज़, हिंसक सामग्री, ऑनलाइन शोषण और मानसिक तनाव जैसी बढ़ती समस्याओं से बचाना है। आँकड़ों से यह बात स्पष्ट होती है कि आज 11–16 वर्ष के लगभग 40 प्रतिशत बच्चे रोज़ाना तीन घंटे से अधिक सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जिससे उनमें अवसाद, चिंता, नींद की कमी और आत्मघाती विचारों आदि का खतरा बढ़ता है।
पहले ही दिन लाखों संदिग्ध अकाउंट बंद होना यह दिखाता है कि समस्या कितनी व्यापक थी। पहली नज़र में यह कदम बच्चों की सुरक्षा के लिए एक मजबूत ढाल की तरह है, लेकिन इसकी व्यावहारिक चुनौतियाँ भी कम नहीं। जैसा कि इस आलेख में ऊपर भी इस बात पर चर्चा कर चुका हूं कि उम्र सत्यापन के लिए आईडी या चेहरा पहचान जैसी व्यवस्था निजता पर प्रश्न खड़े करती है, और बच्चे फर्जी तरीकों से प्लेटफॉर्म तक पहुँचने की कोशिश कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो विशेषज्ञों का यह तर्क है कि उम्र-सत्यापन जैसी तकनीकें अभी पर्याप्त विश्वसनीय नहीं हैं, जिससे इसे लागू करना मुश्किल होगा, और बच्चे वीपीएन या वैकल्पिक ऐप्स के जरिए प्रतिबंध को आसानी से पार कर सकते हैं। इससे वे उन प्लेटफॉर्मों पर पहुँच सकते हैं जो और भी कम सुरक्षित हैं, जो इस कानून के मूल उद्देश्य को ही कमजोर कर देता है।आस्ट्रेलिया का यह कानून भले ही बच्चों की सुरक्षा की दिशा में उठाया गया एक साहसिक कदम हो, लेकिन इसे लागू करना सोशल मीडिया कंपनियों के लिए बेहद महँगा और तकनीकी दृष्टि से जटिल होगा। इस कानून के संबंध में विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि कई किशोरों, खासकर विभिन्न मानसिक स्वास्थ्य समूहों या हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बच्चों के लिए सोशल मीडिया केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सहारा और अभिव्यक्ति का माध्यम है।
ऐसे में इस पर पूर्ण प्रतिबंध उन्हें और अधिक अकेलेपन और अलगाव की ओर धकेल सकता है। दरअसल, केवल कानून बनाकर बच्चों को डिजिटल दुनिया से काट देना न तो व्यावहारिक समाधान है और न लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि आस्ट्रेलिया का यह कानून कहीं न कहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना तक पहुँच पर अनावश्यक अंकुश ही है। कई आलोचकों का यह भी कहना है कि सरकार ने शिक्षा, डिजिटल साक्षरता और प्लेटफ़ॉर्म-स्तरीय सुधार जैसे संतुलित विकल्पों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। कुल मिलाकर, विशेषज्ञों का संदेश यह है कि इरादा भले ही सराहनीय हो, लेकिन पूर्ण प्रतिबंध एक कठोर कदम है, जिसकी प्रभावशीलता संदिग्ध है और जो अनजाने में अधिक नुकसान भी पहुंचा सकता है। वास्तव में आज जरूरत इस बात की है कि बच्चों को डिजिटल साक्षरता, साइबर सुरक्षा, और जिम्मेदार ऑनलाइन व्यवहार की समझ प्रदान की जानी चाहिए, ताकि वे खतरे पहचान सकें और सुरक्षित तरीके से इंटरनेट का उपयोग कर सकें।इसलिए निष्कर्ष यही है कि यह कानून जोखिम को 15–25 प्रतिशत तक कम करने में मदद कर सकता है, लेकिन दीर्घकालिक समाधान तब ही संभव है जब समाज बच्चों को विवेक, संतुलन और सुरक्षित डिजिटल जीवन जीने का कौशल सिखाए, क्योंकि सुरक्षित भविष्य की बुनियाद तकनीक नहीं, समझ पर टिकी होती है। अंत में यही कहूंगा कि आज के एआई युग में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध को पूरी तरह सही या पूरी तरह गलत कहना मुश्किल है। एक ओर, यह बच्चों और किशोरों को हानिकारक कंटेंट, साइबरबुलिंग और लत से बचाने का तरीका माना जा सकता है। दूसरी ओर, डिजिटल कौशल, सीखने और अभिव्यक्ति का बड़ा माध्यम भी सोशल मीडिया ही है। एआई-संचालित दुनिया में युवाओं को तकनीक से दूर रखना उन्हें भविष्य की जरूरी क्षमताओं से वंचित कर सकता है। बेहतर रास्ता पूर्ण प्रतिबंध नहीं, बल्कि सुरक्षित, संतुलित और निगरानी में उपयोग है-जहाँ उम्र, समय सीमा और कंटेंट नियंत्रण को समझदारी से लागू किया जाना चाहिए।