ऋतुचक्र में गड़बड़ी, संकट का संकेत

Jul 30, 2025 - 08:40
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ऋतुचक्र में गड़बड़ी, संकट का संकेत

ज्ब से ऋतु चक्र बिगड़ा है, तब से बारिश भी अनिश्चित हो चुकी है। वर्षा ऋतु से पहले होने वाली अतिवृष्टि कई तरह के संकट पैदा करती रही है। बाढ़ इनमें से प्रमुख है। इस दौरान जनजीवन खतरे में पड़ जाता है। तब भयावह तबाही के दृश्य दिखते हैं। मानसून आने के बाद कहीं कम, तो कई ज्यादा बारिश शुरू हो रही है। मगर अत्यधिक वर्षा के कारण देश के कुछ राज्यों में ही नहीं, बल्कि अन्य देशों के कई प्रांतों में भी बाढ़ की स्थितियां देखने में आई हैं।

मई के अंत से लेकर पूरे जून तक राजधानी दिल्ली सहित उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, बिहार और असम में अनिश्चित, अनियंत्रित तथा उथल-पुथल मचाने वाली वर्षां ने जनजीवन को संकट में डाल दिया था। वहीं जुलाई के पहले पखवाड़े में भी राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ से ग्रस्त क्षेत्रों के लोगों 'का जीवन कष्टपूर्ण हो गया। अप्रैल के बाद से अब तक देश में बादल फटने, बिजली गिरने तथा अतिवृष्टि के कारण आई बाढ़ से कई लोगों की मौत हो चुकी है। लाखों- करोड़ों रुपए की व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक संपत्तियां परिसंपत्तियां नष्ट हो चुकी हैं। मृतकों के के परिवार वालों के सामने अन्न-जल संकट के साथ- साथ आवास, आजीविका और समाजिक-आर्थिक असुरक्षा की समस्याएं भी पैदा हो गई हैं। वर्षा ऋतु बीतने तक उनका दैनिक जीवन बहुत कष्टकारी बना रहेगा। यह परिस्थिति प्राकृतिक प्रतिकूलता तथा जलवायु असंतुलन की पुनरावृत्ति के कारण गत तीस-चालीस वर्षों से हर वर्ष अधिक भयावह रूप से दिख रही है।

बाढ़ के बहते हुए पानी और विशाल क्षेत्र में ठहरे हुए कीचड़ गाद से युक्त पानी के कारण अकल्पनीय समस्याएं पैदा होती हैं। कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। रहन-सहन, भोजन, पानी और बिजली आपूर्ति, आजीविका, शिक्षा, काम-धंधे, नौकरी-व्यवसाय सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। अतिवृष्टि तथा बाढ़ के बाद जल जनित समस्याओं का निदान कई महीनों बाद भी नहीं हो पाता। ऐसी समस्याएं बरसों बनी रहती हैं। तथा समस्याग्रस्त लोगों के जीवन को असुरक्षित कर देती हैं। भारत जैसे देश में जहां भू-क्षेत्र एवं जनसंख्या के । के आधार पर यूरोपीय देशों के बराबर अथवा उनसे भी विशाल 28 राज्य और आठ केंद्रशासित प्रदेश हैं तथा पूरे विश्व में जिस देश की जनसंख्या सबसे अधिक है, वहां अतिवृष्टि के कारण बाढ़ से सामान्य लोगों का जीवन किस सीमा तक प्रभावित होता होगा, इसका आभास बाढ़ से घिरे लोगों के साथ रह कर ही हो सकता है। ऐसी परिस्थितियों से घिरे लोगों का जीवन असुरक्षित होता है। उत्तराखंड के एक जनपद मुख्यालय से कुछ दूर एक लघु उपनगर में निरंतर दो वर्षों तक अतिवृष्टि से उत्पन्न बाढ़ में फंसे असहाय लोगों को देश ने सुरक्षित होने की प्रार्थना करते उन्हें देखा है। ऐसी अतिवृष्टि ऐसी बाढ़ और ऐसी आपदा से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित लोग अपने जीवट और हौसले के बूते ही जीवित रह पाते हैं जिनका आत्मविश्वास निर्बल होता है, वे घबरा जाते हैं।

असुरक्षित पर्यावास के उजड़ने बहने के कारण कई लोग मृत्यु के मुख में समा जाते हैं। जीवित लोग भी केवल अपने शरीर के साथ बचे होते हैं। उनका आवास, जीवनचर्या के लिए आवश्यक भौतिक वस्तुएं, सभी कुछ आपदा में नष्ट हो जाती । उनके लिए जीवन में प्रत्येक आवश्यकता, सुविधा तथा वस्तु को पुनः क्रय कर संग्रहीत करना अत्यंत कठिन हो जाता है। शासन, समाज और सहायता प्रदान करने वाले स्वयंसेवी संगठनों तथा संबंधियों द्वारा सहायता - धनराशि एवं अन्य सुविधाएं तत्काल नहीं मिल पातीं। इन्हें प्राप्त करने के लिए भी पीड़ित व्यक्तियों को काफी संघर्ष करना पड़ता है। इन परिस्थितियों में जब पीड़ितों का जीवन चारों ओर से असुरक्षित महसूस होता है, तो वे कई बार अवसादग्रस्त हो जाते हैं। वे निर्बल हो जाते हैं। प्राकृतिक आपदाओं के देखे भोगे गए संकट का प्रतिघात तथा आपदा से निकलने के बाद जीवन जीने की असुरक्षा और संघर्ष में खपे दिनों का दुख इतना गहन होता है कि पीड़ित व्यक्ति जीवनभर आत्मविश्वास अर्जित नहीं कर पाता। वास्तव में जलजनित आपदाओं का भौतिक तथा मानसिक आघात वही अनुभव कर सकता है, जिसने इन्हें प्रत्यक्ष देखा और भोगा हो । अतिवृष्टि से उपजे गहरे संकट का प्रभाव इतना अधिक होता है मनुष्य प्रकृति के आगे लाचार हो जाता है। जलजले में हर कोना और हर जगह डूब जाती है। आपदा राहत दलों के सामने भी एक बड़ी चुनौती होती है। ऐसा कई बार होता है कि राहत दल संकट से घिरे लोगों तक पहुंच ही नहीं पाता।

कई बार तो पहुंच पाना भी नामुमकिन होता है। आपदा से घिरे लोगों के अनुभव बताते हैं कि किसी भी राहत प्रदान करने वाले दल के लिए अतिवृष्टि के समय बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में बड़ी चुनौतियां होती हैं। राहत कर्मी अपने सभी संभव उपायों एवं राहत प्रदान करने वाले कार्य संकट से पूर्व या संकट समाप्त होने के बाद ही संपन्न कर सकते हैं। सावन माह से पहले देश के विभिन्न राज्यों में एक ही स्थान पर अत्यधिक बारिश होने से जो गंभीर परिस्थितियां बनीं, उसने प्राकृतिक असंतुलन को विकृत ढंग से प्रकट किया। कुछ दशकों से ऋतु विकृतियों में वृद्धि हुई है। ऐसी पुनरावृत्ति के कारण में विगत चालीस-पचास वर्षों में हजारों लोगों की मौत हुई है। लोगों की संपत्तियां परिसंपत्तियां नष्ट हुई हैं। जीवन के हर पक्ष पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। देश और समाज की प्राकृतिक तथा सामाजिक, सभी प्रकार की समस्याओं के निराकरण का दायित्व प्रायः शासन का होता है। वह इसलिए उत्तरदायी होता है, क्योंकि उसके पास व्यक्ति अथवा व्यक्तियों अधिक साधन होते हैं और समस्याओं के समाधान के लिए उन्हें नियोजित किया जा सकता है आवश्यकता होने पर शासन व्यक्तियों तथा नागरिकों के जीवन की रक्षा के लिए अपने हर संभव साधन का उपयोग करता है, लेकिन शासन, समाज और नागरिकों को यह विचार करना होगा कि प्राकृतिक आपदाओं के सामने शासकीय साधन-संसाधन भी निरुपाय सिद्ध हुए हैं। ऐसी । आपदाओं से सुरक्षित रहने के लिए विश्व स्तर पर प्राकृतिक संरक्षण, जलवायु संतुलन तथा ऋतु अनुकूलन की दिशा में अपेक्षित कार्य किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए विज्ञान, प्रगति, आधुनिकता तथा इन तीनों में सामंजस्य तो होना ही चाहिए, वहीं विलासी गतिविधियों पर विराम लगाने के उपाय करने होंगे। ऐसा किए बिना किसी भी देश में प्राकृतिक संतुलन स्थापित नहीं हो सकता। दुनिया के सभी देशों को प्राकृतिक संतुलन के लिए निर्धारित उपाय करने होंगे। यह कार्य निष्ठा से संपन्न करना होगा। नहीं तो जलवायु और भौगोलिक संतुलन नहीं हो सकेगा। इस परिस्थिति के परिणाम गंभीर होंगे। इसकी कीमत अंततः मनुष्यों को ही चुकानी होगी। ऐसे में आधुनिक विश्व की प्रगति - यात्रा कभी कोरोना महामारी, कभी पारस्परिक युद्धों, कभी जलवायु संकट के कारण थम सी जाती है। प्राकृतिक आपदाओं के साथ ही मनुष्यों के बीच बढ़ती हिंसा भी एक बड़ी आपदा है।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब