बदलती जीवन शैली से संकटमय पशु आबादी

Apr 24, 2025 - 07:33
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बदलती जीवन शैली से संकटमय पशु आबादी

अपने ही इस अखबार में एक बड़ी रपट छपी थी। जिसमें बताया गया था कि पंजाब में पशुओं की गणना से पता चला कि उनकी संख्या, पिछली गणना के मुकाबले कम हो गई है। पशुओं की गणना हर पांच साल में की जाती है। इनकी संख्या में 8.5 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। जिनकी गणना की गई उनमें भैंस, गाय, भेड़, बकरियां, घोड़े, टट्टू, खच्चर, गधे, ऊंट, सूअर, खरगोश, कुत्ते और हाथी शामिल हैं। क्या इस गणना में बिल्लियों, मुर्गियों, बैलों को भी शामिल किया गया था? इसी रिपोर्ट में कहा गया कि राज्य में अब बस सिर्फ 127 गधे, 77 ऊंट और 1 हाथी ही बचा है।

एक अच्छी खबर यह है कि देसी गायों की संख्या बढ़ती जा रही है। दुधारू पशुओं की घटती संख्या का असर दूध उत्पादन पर नहीं पड़ा है। हालांकि 2019 की गणना में बताया गया था कि भारत में पशुओं की संख्या 2012 के मुकबले 4.6 प्रतिशत अधिक है। हो सकता है पांच साल में यह कम हो गई हो। 2022 में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट में बताया गया था कि पूरी दुनिया में जंगलों में रहने वाले पशु तेजी से कम हो रहे हैं। उनमें 69 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। पालतू पशुओं की संख्या कम होने का बड़ा कारण यह है कि लोग गांव छोड़कर शहरों की तरफ या विदेश जा रहे हैं। ऐसे में जब युवा ही नहीं होंगे साथ में तो पशुओं की देखभाल कौन करे। नि:संदेह, इनकी देखभाल में काफी समय और मेहनत भी लगती है। इनके रहने के लिए अतिरिक्त जगह भी चाहिए। शहरों के फ्लैट सिस्टम में तो दुधारू पशु पाले ही नहीं जा सकते। हां, सालों पहले कोलकाता में एक आदमी ने अपने आठवीं मंजिल के फ्लैट में गाय पाली थी।

पशुओं की हो रही कमी सिर्फ पंजाब की ही बात नहीं है, पूरे भारत की बात है। रिपोर्ट चाहे कुछ भी कहती हो, पशु पालने में बहुत मेहनत लगती है। एक बार पंजाब के लोगों का ही एक साक्षात्कार पढ़ रही थी, जिसमें बताया गया था कि अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी जो महिलाएं विवाह करके आती हैं, उनकी रुचि खेती के कामों में नहीं है। हम जानते ही हैं कि पशुओं की देखभाल, उनकी सानी-पानी, उनका दूध दुहना आदि का काम बड़ी संख्या में महिलाएं ही करती रही हैं। लेकिन अब महिलाओं की यह पीढ़ी खत्म होने के कगार पर है। पढ़ी-लिखी लड़कियों की इस काम में इतनी दिलचस्पी भी नहीं। न ही उनमें इतनी मेहनत करने की ताकत है। उत्तर प्रदेश में भी यही हाल है। बल्कि कहें कि पूरे देश में ही अब घरों में पशु पालने का चलन कम होता जा रहा है। हालांकि उत्तर प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि वहां सबसे अधिक पशु हैं। पशुओं को धन कहा गया है। गो धन, गज धन, बाज धन। यानी कि गाय, हाथी और घोड़े धन जैसे ही होते हैं। गाय के दूध से ही दही, मक्खन, छाछ मिलता है। पहले खेती के कामों के लिए बछड़े भी देती थी, जिनकी इन दिनों दुर्दशा है। ट्रैक्टर के आने के बाद चूंकि बैलों की जरूरत नहीं रही, तो अब वे मारे-मारे फिरते हैं। कोई उन्हें नहीं पालता। वैज्ञानिकों ने भी बैलों की पूरी प्रजाति को खत्म करने की ठान ली है।

कुछ साल पहले बताया गया था कि वैज्ञानिकों ने ऐसी प्रविधि विकसित कर ली है, जिनमें गायें अब बस बछियों को ही जन्म देंगी। हमारे देखते-देखते एक पूरी प्रजाति नष्ट हो जाएगी। सिर्फ म्यूजियम्स में बचेगी। मनुष्य की स्वार्थपरता का यह एक नमूना भर है। दूसरे नम्बर का धन गज धन यानी कि हाथी। हाथी युद्ध से लेकर बहुत से कार्य में काम आता था। अमीर लोग अपनी अमीरी का प्रदर्शन करने के लिए दरवाजे पर हाथी बांधते थे। और घोड़े, उनकी उपयोगिता के तो कहने ही क्या। वे युद्ध में तो काम आते ही थे, परिवहन का साधन भी थे। माल की ढुलाई भी करते थे। लेकिन बदलते वक्त के साथ अब बहुत कम लोग पशु पालना चाहते हैं। एक-दो किलो दूध के लिए कौन इन्हें पाले। जब आने-जाने के इतने त्वरित साधन मौजूद हों, तो भला घोड़े की क्या जरूरत। जैसा कि पंजाब की रिपोर्ट में बताया गया कि पशुओं की संख्या कम होने के बावजूद देश में दूध की कमी नहीं है। इसका बड़ा कारण यह भी है कि अपने यहां 1970 में ही दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड की स्थापना की गई थी। इससे जुड़े डॉ. वर्गीज कुरियन का मुख्य उद्देश्य दूध के उत्पादन को बढ़ाकर भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाना था। यह दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादन प्रोग्राम था। गुजरात से शुरू हुआ यह प्रोग्राम पूरे भारत में छा गया था। डॉ. वर्गीज कुरियन को मिल्कमैन आफ इंडिया भी कहा जाता था।

उन्होंने न केवल गुजरात में बनाए दूध और उससे जुड़े तमाम उत्पादों को भारत के घर-घर पहुंचाया बल्कि इस आंदोलन से किसानों और विशेषकर स्त्रियों को भी बहुत लाभ हुआ। उनकी आय बढ़ी। इसे अमूल का नाम दिया गया था। आज भी बहुत से लोग इन उत्पादों का उपयोग करते हैं। अमूल के विज्ञापन भी बहुत चर्चित रहते आए हैं। इसका मालिकाना हक भी दूध उत्पादन करने वालों के पास था। इसी विषय पर उन दिनों श्याम बेनेगल ने मंथन नाम से फिल्म बनाई थी। इसमें स्मिता पाटिल ने शानदार अभिनय किया था। इसके बाद तो बहुत-सी अन्य डेयरियां भी खुलीं। भारत की दस प्रमुख डेयरियों में अमूल (गुजरात), मदर डेयरी (दिल्ली), मिल्मा (केरल), दूधसागर (मेहसाणा, गुजरात), नंदिनी (कर्नाटक), पराग (महाराष्ट्र), स्रीबर (अमेरिका), वेरका (पंजाब) आवनि, (तमिलनाडु) आदि शामिल हैं। हालांकि, 1930 में ही अमूल के आने से पहले पोलसन ने भारत में दूध सप्लाई करने का काम किया था। शायद दूध क्रांति का ही फल है कि देश में दूध और उससे जुड़े उत्पादों की कोई कमी नहीं है। इसी कारण अब गांवों में भी इक्का-दुक्का घरों में ही पालतू पशु दिखाई देते हैं। इस लेखिका के घर में भी बहुत से पशु पाले जाते थे। गांव के घर-घर में वे मौजूद थे। लेकिन अब कहीं-कहीं ही दिखाई देते हैं। शहरों में तो पशुओं के लिए टैक्स भी देना पड़ता है। अड़ोसी-पड़ोसी गंदगी की शिकायत भी करते हैं।

ऐसे में पशु पाले भी कौन। इसके अलावा इन दिनों भारत में जो पशु खास तौर से गायें और गो वंश जब बूढ़ा हो जाता है, तो उन्हें यों ही छोड़ दिया जाता है। वे भूखे मरते हैं। किसानों के लिए ये भारी समस्या भी है। पचास-साठ के दशक में भारतीय रेल ट्रांसफर के वक्त अपने कर्मचारियों को मालगाड़ी के दो डिब्बे सामान ढोने के लिए देती थी। इसे किट-कैटल कहा जाता था। यानी कि अवधारणा यह थी कि कर्मचारियों के सामान में जानवर भी होंगे। अब ऐसा होता है कि नहीं, पता नहीं। तब सिर्फ गांव में ही नहीं, शहरों में भी खूब जानवर पाले जाते थे। यह शायद नौकरीपेशा लोगों और शहरों की तरफ पलायन करने वाले लोगों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी रही होगी, जिसका सम्पर्क गांवों से भी था। अब पीढ़ियां बदल गई हैं, रहन-सहन के तौर-तरीके भी।

 विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब