क्यों माने हार से हार
क्यों माने हार से हार
किसी कार्य में एक-दो बार असफल होने पर इंसान अपने कार्य क्षमता पर संदेह करने लगता है।जबकि ऐसा होता नहीं है। कोई भी नया काम शुरू करो,उसमें पहली बार सफलता मिलेगी उसकी कोई गारंटी नहीं होती।कुछ भी कार्य करो या तो उसमें सफलता मिलेगी या असफलता।यह तो निश्चित है ।
सफल हुये तो बहुत अच्छी बात और नहीं हुये तो दुबारा और आत्मविश्वास से शुरू करो।आपने देखा होगा कि एक छोटी सी चींटी दिवार पर चढ़ना शुरू करती है तो अनगिनित बार नीचे गिरती है पर वो हार नहीं मानती।इसलिये हम्हें उस चींटी से सीख लेनी चाहिये कि जब वो कितनी बार असफल होकर भी हार नहीं मानती तो हम क्यों हार माने और अपने मन में अपने कार्य क्षमता पर शंका करें कि मैं नहीं कर पाऊँगा। जिसके पास साम्राज्य तो है किन्तु शांति नहीं निश्चित वह गरीब ही है। यह इस जीवन की एक बड़ी विडंबना है ।
बाहर से हारकर भी जिसने स्वयं को जीत लिया वह सम्राट है। सम्राट को शांति मिले यह आवश्यक नहीं पर जिसे शांति प्राप्त हो गयी वह सम्राट अवश्य है। इसलिए जानने के साथ साथ हम माने की परिपक्वता इसमें नहीं है कि हम कितना जानते हैं या कितने शिक्षित हैं बल्कि इसमें है कि हम किसी भी जटिल स्थिति से , शांति से निपटने में कितने सक्षम हैं ।
जीवन में उनके लिये सवेरे नही होते जो जिन्दगी मे कुछ भी पाने की उम्मीद छोड चुके है , उजाला तो उनका होता है जो बार - बार हारने के बाद कुछ पाने की उम्मीद रखते हैं। इसलिए हार से हार नही माननी हैं। साहस और उत्साह से, अपना नया कल लिख जाए।आओ लिखे कहानी जीत की, सम्मान और साहस से सपने सच करने की। जिसका आत्म विश्वास मज़बूत होगा, सफलता उसके कदमों में ज़रूर होगी। प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)