क्या थे , कहाँ पहुँच गए हम

Sep 14, 2024 - 09:48
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क्या थे , कहाँ पहुँच गए हम
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क्या थे , कहाँ पहुँच गए हम

प्रतिस्पर्धा की इस अंधी दोङ मे बचपना तो न जाने कबका खो गया है और जवानी का जुनून भी हारे हुए जुआरी की तरह ,बेदम सा हो गया है। कहने को चाहें हम कुछ भी कह दें पर हकीकत कुछ ओर ही बंया करती है । जिन्दगी के सफर का राही थका हारा सा ढलती शाम के आगोश मे सो गया है।

बहुत भाग्यशाली हैं वे लोग जिनकी जिन्दादिली आज भी जिन्दा है पर सही मायने मे ज्यादातर लोग , आज की जीवन शैली से बहुत शर्मीन्दा हैं। जब जमाना ही मुखौटों के पीछे हकीकत छुपाने वालों का बन गया है | मुरीद तो पौ फटने की बेला पर ये सुबह है या शाम में जीवन असमंजस मे मासूम परिन्दा जैसा बन गया है। यह आज की दुनिया जिसके लिए शेखी बघारते हैं की हमने बनाई है यह तथाकथित आधुनिक जिन्दगी जो हमने बड़ी जतन से सजाई है , उसमें जितना शोर है, उतनी ही खामोशी है।जितनी भीड़ है,उतनी ही अंदर से तन्हाई है।

क्योंकि आज आदमी का दिल कहीं है और दिमाग़ कहीं है। जब हमारे पास कुछ नहीं था तो सब कुछ था और आज हमारे पास सब कुछ है पर देखा जाए तो जो पहले था वह आज कुछ भी नहीं है। मैं उससे आगे….! मैं उससे पीछे क्यों, इसी दौड़ में जिन्दगी के सारे लम्हें यों खो गए है मानो कभी और थे ही नहीं जिन्दगी यूँ ही फिसलती गई। इंसानियत हमारी जिंदा रहें तो हम जिंदा है,बिना इसके हम में और मुर्दा में कोई अंतर नहीं बल्कि उससे भी बदतर है।

हम चेते अब तो।जब जागे ,तभी सवेरा।व्यक्ति और समाज की चिंतनीय स्थिति का समाधान है -इंसानियत।अमीरी और गरीबी की भेदरेखा को मिटाने वाला हथियार है -इंसानियत।शरीरधारी इंसान तो आयुष्य सम्पन्न होने पर मरता है,लेकिन इंसानियत हमेशा जिंदा रहती है तीनों काल में, हम इंसानियत पर हैवानियत को हावी होने का मौका नहीं दें अपने विवेक से ,यहीं सर्वोत्तम है।

 ओम् अर्हम सा ! प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़ )