मोदी सरकार ने 58 साल पहले RSS पर लगा प्रतिबंध हटाया, क्या सरकारी कर्मचारी भी पहनेगा अब हाफ नेकर?
मोदी सरकार ने 58 साल पहले RSS पर लगा प्रतिबंध हटाया, क्या सरकारी कर्मचारी भी पहनेगा अब हाफ नेकर?
कांग्रेस को आरएसएस से समस्या हमेशा से थी। यही वजह है कि उन्होंने समय-समय पर इस संगठन को दबाने का प्रयास किया, लेकिन अदालत में दावे फुस्स हो गए।
कॉन्ग्रेस को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से समस्या है ये तो सब जानते हैं लेकिन किसी को ये नहीं पता होगा कि ये समस्या शुरू से इतनी बड़ी रही है कि 60 के दशक में कॉन्ग्रेस ने सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस की गतिविधियों में शामिल होने पर बैन ही लगा दिया था। हिंदू विवेक केंद्र में आरएसएस पर लगे बैन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित है। इस रिपोर्ट में कई जानकारियाँ दी गई हैं जैसे कब-कब आरएसएस पर बैन लगाया गया और कब-कब आरएसएस संगठन से जुड़े लोगों को टारगेट करने का प्रयास हुआ।
इस रिपोर्ट के अनुसार आरएसएस को खुलेआम टारगेट करना कॉन्ग्रेस ने तब से शुरू किया जब महात्मा गाँधी की हत्या की गई। कॉन्ग्रेस ने मौके का फायदा उठाते हुए उनपर बैन लगाया। बाद में गृहमंत्री सरदार पटेल ने इसके खिलाफ आवाज उठाई और साथ ही आरएसएस द्वारा देश भर में सत्यग्रह किए जाने के बाद इस बैन को हटाया गया। हालाँकि बैन हटने का अर्थ ये नहीं था कि कॉन्ग्रेस की नजर इस संगठन से हट गई। 1966 में सरकारी कर्मचारियों को इस संगठन की गतिविधियों में भाग लेने से रोक दिया गया। फिर 1975 में जब इमरजेंसी लागू हुई तो फिर आरएसएस को बैन किया गया। तब भी, आरएसएस ने अपने ऊपर लगे बैन के खिलाफ आवाज उठाई। 1977 के चुनावों में उनके विरोध में प्रदर्शन किया।
नतीजतन न केवल पार्टी हारी, बल्कि इंदिरा गाँधी और उनके बेटे संजय गाँधी तक अपनी सीटों से हार गए। आरएएस से बैन फिर हटाया गया। 1992 में जब अयोध्या में कारसेवा के बाद बाबरी ढाँचा गिरा तो फिर कॉन्ग्रेस को आरएसएस पर बैन लगाने का मौका मिला गया। इस पर आरएसएस पर बैन UAPA 1967 के प्रावधानों के तहत लगाया गया। ढाँचा गिरने का सारा इल्जाम आरएसएस पर लगा दिया गया। बात ट्रिब्यूनल कोर्ट तक पहुँची लेकिन कोर्ट को आरएसएस के विरुद्ध पर्याप्त सबूत नहीं मिले और उन्होंने आरएसएस को बैन करने की माँग हटा दी। आरएसएस से जुड़े लोगों को सरकारी नौकरी से हटाया मालूम हो कि आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने की इच्छा जब कॉन्ग्रेस की पूरी नहीं हुई तो फिर उन्होंने सरकारी कर्मचारियों को इस संगठन की गतिविधियों में शामिल होने से रोकने का प्रयास किया।
उन्होंने पुलिस से कहा कि वो सत्यापित करें कि केंद्र में काम करने वाले लोग आरएसएस से तो नहीं जुड़े, अगर जुड़ें हैं तो उनकी नियुक्ति रद्द कर दो। उन्हें नौकरी देने से मन कर दो, नौकरी से हटा दो। इसका एक उदाहरण रामशंकर रघुवंशी का मामला बताया जाता है। रिपोर्ट् के अनुसार रघुवंशी स्कूल शिक्षक थे। ऱघुवंशी को पहले पूर्व में हुए सत्यापन पर स्कूल में शामिल कर लिया गया। हालाँकि बाद में पुलिस ने सरकार को बताया कि वो अंएक समय में आरएसएस और जनसंघ की गतिविधियों में शामिल थे तो उन्हें नौकरी से हटा दिया गया। इसी तरह, रंगनाथाचार्य अग्निहोत्री को कर्नाटक में मुंसिफ के पद के लिए चुना गया था।
पुलिस सत्यापन में पता चला कि वे अतीत में येलबुर्गा में आरएसएस के आयोजक थे। सरकार ने उन्हें अपनी नौकरी में प्रवेश देने से मना कर दिया। एक अन्य मामले नागपुर के चिंतामणि का है। जो कि उप पोस्ट मास्टर थे। उन पर आरोप लगाया गया था कि वे आरएसएस के सदस्य हैं और संक्रांति के अवसर पर आरएसएस कार्यालय गए थे। इतनी सी बात के लिए चिंतामणि को सेवा से हटा दिया गया था। हालाँकि बाद में वो इंसाफ के लिए मैसूर हाई कोर्ट पहुँचे। जहाँ अदालत ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा, “प्रथम दृष्टया आरएसएस एक गैर-राजनीतिक सांस्कृतिक संगठन है।
इसमें गैर-हिंदुओं के प्रति कोई घृणा या दुर्भावना नहीं है। देश के कई प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्तियों ने इसके कार्यों की अध्यक्षता करने या इसके स्वयंसेवकों के काम की सराहना करने में संकोच नहीं किया है। हमारे जैसे देश में जहाँ लोकतंत्र है (जैसा कि संविधान द्वारा सुनिश्चित किया गया है), यह प्रस्ताव स्वीकार करना उचित नहीं होगा कि ऐसे शांतिपूर्ण या अहिंसक संघ की सदस्यता और उसकी गतिविधियों में भागीदारी मात्र से कोई व्यक्ति (जिसके चरित्र और पूर्ववृत्त में कोई अन्य दोष नहीं है) मुंसिफ के पद पर नियुक्त होने के लिए अनुपयुक्त हो जाएगा। बाद में उन्होंने विशेष सिविल अपील संख्या 22/52 में बॉम्बे (नागपुर बेंच) में उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। जहाँ कोर्ट ने कई अहम बातें कहीं।
न्यायालय ने कहा, “याचिकाकर्ता चिंतामणि के मामले में, पहला आरोप यह है कि वह आरएसएस की गतिविधियों से जुड़े हुए हैं और उसमें सक्रिय रूप से भाग ले रहे है। हालांकि चिंतामणि ने इस आरोप से इनकार किया है, मगर हम मान सकते हैं कि प्रतिवादी के अनुसार आरोप सत्य है… लेकिन ये भी गौर हो आरएसएस ऐसा संगठन नहीं है जिसे गैरकानूनी घोषित किया गया हो। आरोप में यह भी नहीं बताया गया है कि आरएसएस की कौन सी गतिविधियाँ हैं, जिनमें भागीदारी या जिनसे जुड़ाव को विध्वंसक माना जाता है।
कोर्ट ने चिंतामणि पर लगाए गए आरोपों को लेकर कहा कि सरकार बेहद अस्पष्ट है। जब तक किसी व्यक्ति पर उचित रूप से यह संदेह न हो कि वह कुछ गैरकानूनी काम कर रहा है या सार्वजनिक सुरक्षा के लिए हानिकारक है, तब तक यह कहना मुश्किल है कि किसी ऐसी संस्था से जुड़ाव मात्र, जिसे न तो गैरकानूनी घोषित किया गया है और न ही किसी असामाजिक या देशद्रोही गतिविधियों या शांति भंग करने वाली गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप या दिखाया गया है, नियम 3 के तहत कार्रवाई का आधार बन सकता है।
बता दें कि ये मामले केवल तीन हैं लेकिन कहा जाता है कि कई उच्च न्यायालयों में इस तरह उन आरएसएस सदस्यों के मामलों की सुनवाई की गई जिन्हें मात्र संगठन से जुड़ने पर नौकरी से निकाले जाने के प्रयास हुए। अब मोदी सरकार के इस फैसले को कॉन्ग्रेस भले ही कितना नकारात्मक दिखाने का प्रयास करे लेकिन जो लोग आरएसएस को जानते समझते हैं वो इस कदम की तारीफ कर रहे हैं।