हार्दिक संवाद
हार्दिक संवाद
आज के समय में सिर्फ और सिर्फ दिखावे का संवाद रह गया है यह मैं बोलू तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि आज हम तथाकथित आधुनिकता के युग में जी रहें हैं। सज्जन पुरुष इस आधुनिकता के युग में अनचाही कड़वी घूँट पी रहें हैं । हमारे जीवन की व्यवहारिकता में बनावटीपन व्याप्त है।
सुंदर और आत्मिक सौरभ के शब्दों का जमाना प्रायः समाप्त है। सब तरफ उधार ज्ञान का बाजार गर्म है। इन्टरनेट, सोशल मीडिया व अन्य मीडिया आदि में सबदिक् उधार का ही बोलबोला है । सभी तरह कि शुभकामनायें आदि भी रेडीमेड उपलब्ध हैं।
ऐसे में प्रेषक का हृदय कहाँ मौजूद है। मात्र औपचारिकता का ही वजूद है।हार्दिक संवाद दिनचर्या की औपचारिकता ही नहीं अपितु रिश्तों के प्रति स्नेह और आदर की अभिव्यक्ति भी है । ये रिश्ते को सकुशल और यादों में हरदम साथ रहते हैं । लड़िये, रुठिये पर संवाद बंद न कीजिये, बातें करते रहने से अक्सर उलझने सुलझ जाती है, गुम होते है शब्द, बंद होती है जुबाँ, संबंध की डोर ऐसे में और उलझ जाती है ।
गांधीजी के तीन बंदर थे पर मोबाइल ने तीनों को मिलाकर एक बना दिया मनुष्य जब इसे हाथ में लेता है तो न किसी से बोलता है , न किसी को देखता है ,न किसी की सुनता है पर यक़ीनन हर रिश्ते का अपना अस्तित्व है । पारस्परिक मुस्कुराहट और अभिवादन जो हार्दिक संवाद की मधुर रीत से जीवंत रहेगा।
इसलिये दिल से जुड़े क्योंकि हृदय के अंतः से निकले सुवासित शब्द ही दूसरे के हृदय को स्पर्श करेंगे । ये ही शब्द ऐसे सरस हार्दिक संवाद ही होते हैं । परस्परता का असली आनंद तभी मिलेगा और ऐसे संवाद से दोनों का हृदय स्वत: ही खिलेगा। प्रदीप छाजेड़