सुख के सपनों का दुख

Jul 24, 2024 - 07:46
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सुख के सपनों का दुख
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सुख के सपनों का दुख

विजय गर्ग

कहते हैं कि सुख और दुख जीवन में परछाई की तरह होते हैं। दोनों का समय बंधा हुआ है। आज दुख है तो कल सुख हमारे द्वार आएगा। जो आज सुखी है, उसके जीवन में दुख चुपके से प्रवेश कर जाएगा। दुख के अर्थ अनेक हैं। वह हमारी सेहत का हो सकता है। वह रोजगार को छीन सकता है, रिश्तों में खटास ला सकता है या दुख हमारे सपने को तोड़ सकता है।

मगर सुख की एक परिभाषा है चेहरे पर मुस्कराहट जो आदमी प्रसन्न है, वह सुखी है और जो सुखी है वह प्रसन्न है। इससे इतर एक और सवाल मन में आता है कि आखिर दुख क्यों उपजता है? शायद किसी साधारण व्यक्ति के लिए एक परिभाषा हो सकती है कि जब अपने मन का न हो तो दुख, लेकिन हकीकत यह है कि दुख से बड़ा दुख सुख के सपने देते हैं।

हम सपने बुन लेते हैं। कई बार हमारे जीवन में यह सपना आता है कि हमारी शिक्षा के मुताबिक ओहदा और सम्मान मिले, लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है और हम दुखी हो जाते हैं। यहां दुख की परिभाषा बदल जाती है, क्योंकि सुख के सपने की कल्पना पूरी नहीं होने पर हम दुखी हो जाते हैं। ऐसे लोग आसपास देखे जा सकते हैं, जिनकी जिंदगी कभी सामान्य नहीं रही, लेकिन आज वे खुश हैं। यह खुशी उनके सपनों के सच हो जाने की खुशी है। जिस जीवनसाथी से जीवन भर उनकी नहीं बनी होगी, अचानक उनके प्रति चिंता या उनके हवाले खुद को छोड़ देना सुख नहीं है, बल्कि सुख के सपनों को पूरा करना है। एक सच यह भी है कि जब उस दंपती के बीच जीवनभर तनातनी चल रही होगी, तब वे आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं रहे होंगे।

सत्ता संस्थानों और ख्याति की कल्पना की जाती है, उससे भी बहुत वास्ता नहीं होगा। मगर जीवन का पहिया घूम जाए तो और सुख के सपने सच होने लगते हैं। धन, सत्ता और ख्याति पास चली आती है। और फिर सुख भी पहलू में आ जाते हैं। दुख का सुख में बदलना शायद इसे ही कहते हैं। हम जिस तरह की सामाजिक व्यवस्था में रहते हैं, उसमें अगर किसी महिला जीवनसाथी को यह कहा जाए कि पति के जिंदा और स्वस्थ रहने की इच्छा अपने जीवन के अनावश्यक कष्टों की आशंका की वजह से की जाती है, तो यह शायद आम धारणा के मुताबिक ही होगा और महिला जीवनसाथी इसे सच भी माने। निर्भरता की स्थितियां कई बार इस तरह सोचने पर मजबूर करती हैं।

इस तरह की बातों में सुख और दुख का दोनों पलड़ा समान है, क्योंकि महिला के सुख के सपने टूट नहीं रहे हैं और दुख की आशंका को उसने जाहिर कर दिया है। हमारे समाज में अनेक परिवार हैं जिनमें लोग गफलत में ही सही, सुख के सपने के साथ जीवन बसर कर लेते हैं। अगर रिश्ते के लिए सोचा और किया जाए, तो इससे बेहतर कुछ नहीं। मगर यह कहा जाए कि कोई पैसे के लिए उसका खयाल रख रहा है तो इस तरह का दंभ जीवन में एक नया दुख दे सकता है। दुख को सुख के सपनों में परिवर्तित करने का एक अवसर तब आता है, जब बच्चे उनका साथ छोड़कर अपनी जिंदगी में मसरूफ हो जाते हैं। एकाकीपन में जो साथ होता है, वह सुख और दुख की किसी परिभाषा से परे होता है।

यहां परस्पर जरूरत दोनों को साथ लेकर आता है। खाना से लेकर दवा तक इंतजाम करना होता है और यही जरूरतें सुख और दुख की नई परिभाषा गढ़ती हैं। इसे हम अपने अनुरूप अपनी परिभाषा में ढाल सकते हैं। सुख के सपने टूटने का मनोवैज्ञानिक कारणों का पता लगाया जाए तो बेहताशा उम्मीदों का टूट जाना और निराशा में मौत को गले लगाना है। देश के किसी भी राज्य में खुदकुशी के आंकड़े देखे जाएं तो सर्वाधिक निराश और हताश युवा मिलेंगे जो जीवन को खत्म करना सबसे आसान समझते हैं। उनका जीवन अभी शुरू हुआ है और उनके जीवन में अच्छे अंकों से पास नहीं होना या मनमर्जी के मुताबिक नौकरी नहीं मिलना या बेरोजगारी से तंग आकर प्रेम का टूट जाना उनका दुख है। यह वही स्थिति है जहां दुख ने नहीं, सुख के सपनों ने हमेशा इस पीढ़ी को दुखी किया है।

ऐसे में पिता का पीठ पर हाथ और मां का दुलार उन्हें ऐसे दुख से उबार सकता है। यहां दुख और निराशा में भी भेद करने आना चाहिए। दुख आने पर इसका निदान हो सकता है, लेकिन निराशा का कोई मरहम नहीं. आज समाज में ऊंचे सपने और टूटते सपनों के बीच युवा मन टूट रहा है। एक पुरानी लोककथा है, जिसमें पिता-पुत्र बाजार से निकलते हैं और पुत्र हाथी देखकर मचल उठता है। गरीब पिता हाथी का भाव पूछता है, क्योंकि दो पैसे का हाथी उसे महंगा लगता है। कुछ साल गुजरने के बाद यही दृश्य दोहराया जाता है और पिता फिर हाथी का भाव पूछता है तो उसे दो हजार रुपए बताया जाता है। पिता खुशी-खुशी बेटे के लिए हाथी खरीद लेता है।

बेटा पिता से सवाल करता है कि दो पैसे का हाथी लेने से मना कर दिया था और आज दो हजार का हाथी आप ले रहे हैं। पिता ने एक पंक्ति में समझाया कि तब दो पैसे भी हमारे लिए दो हजार के समान थे। यही जीवन की रीत है और सुख और दुख चलता रहता है।

 विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब