घटता शारीरिक श्रम, बढ़ती व्याधियां

Jul 17, 2024 - 08:32
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घटता शारीरिक श्रम, बढ़ती व्याधियां

विजय गर्ग

किसी देश में सेहत और बीमारी का संबंध सिर्फ इलाज की सहूलियतों और आबादी की तुलना में उपलब्ध अस्पतालों और डाक्टरों की संख्या से हो, जरूरी नहीं। लोगों को कई रोग इसलिए भी घेरते हैं, क्योंकि उनकी दिनचर्या सेहत से जुड़े कायदों के मुताबिक नहीं होती और लोग ऐसी दिनचर्या अपनाते हैं, जिससे उनके बीमार पड़ने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है।

ऐसे कई अध्ययन और सर्वेक्षण हुए हैं, जो बताते हैं कि हमारे देश देश में साधन-संपन्नता बढ़ने के साथ लोग अपनी दिनचर्या और स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा लापरवाह हुए हैं। ऐसा ही एक अध्ययन हाल में 'द लैंसेट ग्लोबल हेल्थ' पत्रिका में प्रकाशित किया है। इसमें दावा किया गया है कि भारतीय शारीरिक सक्रियता के मामले में दूसरे कई देशों के नागरिकों से काफी पीछे हैं। 2019 में दुनिया के 197 देशों में सन 2000 से 2022 के मध्य कराए गए इस अध्ययन का उद्देश्य उद्देश्य विभिन्न देशों के वयस्क नागरिकों की दिनचर्या में शारीरिक सक्रियता की हिस्सेदारी और स्तर को नापना था।

 अध्ययन में 197 में से 163 देशों से मिले 507 सर्वेक्षणों का आकलन किया गया, जो दुनिया की कुल आबादी के 93 फीसद हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से 167 सर्वेक्षण 2010 से पहले के, 268 सर्वेक्षण 2010 से 9 के मध्य के और 72 सर्वेक्षण 2020 और उसके बाद के हैं। रपट कहा गया है कि वैसे तो पूरी दुनिया में आम वयस्कों की शारीरिक सक्रियता में कमी आई है, लेकिन इसमें उच्च आय वाले एशिया प्रशां क्षेत्र के देशों के आंकड़े परेशान करने वाले हैं। भारत ऐसे देशों सूची में दूसरे स्थान पर है, जहां के वयस्कों में आलस्य यानी सुस्ती बढ़ने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं।

रपट के मुताबिक आज से करीब पच्चीस वर्ष पहले भारत के वयस्कों का बाईस फीसद हिस्सा ऐसा था, जिसे शारीरिक सक्रियता के मामले में सुस्त माना जाता था। मगर 2010 में यह बढ़कर 34 और 2022 में लगभग 50 फीसद हो गया। कह सकते हैं कि कोविड महामारी के बाद वाले दौर में भारत के आधे वयस्कों की शारीरिक सक्रियता तकरीबन ठप हो चली है। 2030 तक इसके 60 फीसद तक पहुंचने का अनुमान है। ताजा आंकड़े हमारे देश में 42 फीसद पुरुषों की शारीरिक निष्क्रियता दर्शाते हैं, तो स्त्रियों के मामले यह 57 फीसद बताया गया है। ऐसा संभवतः इसलिए है क्योंकि घरेलू कामकाज में स्त्रियों की भूमिका लगातार सिकुड़ रही है।

यहां शारीरिक सक्रियता से आशय तेज चलने, दौड़-धूप वाले काम करने और ऊर्जा जलाने वाले व्यायाम है। हालांकि वैश्विक स्तर पर वयस्कों का निष्क्रियता संबंधी आंकड़ा वर्ष 2010 में 26.4 था, जो अब बढ़कर 31.3 फीसद हो गया है। कह सकते हैं कि इस निष्क्रियता में एक बड़ी भूमिका कोविड महामारी के दौर की हो सकती है। कोविड महामारी के दौरान सारे कामकाज इंटरनेट के जरिए घर बैठे कराने का चलन स्थापित हुआ, जो बाद परिपाटी में बदल गया। इससे लोगों का घर से बाहर निकलना कम हो गया।

यहां तक कि 'वर्क फ्राम होम' यानी 'घर से काम की संस्कृति और विकसित हो जाने से दफ्तर जाने की अनिवार्यता में भी भारी कटौती हो गई है। इससे भी वयस्कों की शारीरिक निष्क्रियता बढ़ी है। शारीरिक सक्रियता में कमी को लेकर इसलिए चिंता जताई जा रही है कि व्यायाम, दौड़-धूप वाला कोई काम न करने, पैदल न चलने का असर यह होता है कि शरीर पर चर्बी बढ़ने लगती है और कई अंग भारी वसा और निष्क्रिय जीवनशैली के असर से पैदा बोझ के तले दबते चले जाते हैं। इन दशाओं में मनुष्य का पाचनतंत्र कमजोर या बीमार हो जाता है। भोजन से मिली ऊर्जा खर्च न हो पाने की दशा में शरीर पर बसा और अतिरिक्त मांस के रूप में जमा हो जाती है। इससे मोटापा, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग और पाचन तंत्र की कई समस्याएं बढ़ जाती हैं।

इन बीमारियों को जीवनशैली संबंधी बीमारियों के रूप में पहचाना जाता है, जो दुनिया के लिए एक बड़े स्वास्थ्य संकट की तरह सामने आ रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2017 में अपने एक वृहद अध्ययन में बताया था कि भारत में 61 फीसद गैर-संक्रामक मौतों के पीछे लोगों की निष्क्रिय दिनचर्या है दुनिया के 19 लाख लोगों की दैनिक शारीरिक सक्रियता का अध्ययन करके पेश की गई इस रपट में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अंदाजा लगाया था कि इस वक्त दुनिया में करीब 140 करोड़ लोगों की शारीरिक सक्रियता काफी कम है, लेकिन उस वक्त इस रपट में बताया गया था कि भारत के 24.7 फीसद पुरुषों और 43.3 फीसद महिलाओं को अपने हाथ-पांव हिलाने में ज्यादा यकीन नहीं है। यह आंकड़ा अब बढ़ चुका है।

मगर पड़ोसी देश चीन ने 'हेल्दी चाइना 2030' अभियान चलाया है। इसी तरह आस्ट्रेलिया ने 2030 तक अपने 15 फीसद नागरिकों को व्यायाम में सक्रिय बनाने का लक्ष्य रखा है। ब्रिटेन में 2030 तक पांच लाख नए लोगों को व्यायाम से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है, जबकि अमेरिका में एक हजार शहरों को 'फ्री फिटनेस' से जोड़ने का अभियान चलाया गया है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह सुस्ती हमारी पूरी जीवनशैली और कार्य संस्कृति में समाई ई हुई है। और इसलिए यह एक चेतावनी है। इसलिए ऐसे अध्ययनों की गंभीरता को समझते हुए भारतीयों को अपनी दिनचर्या में बदलाव को लेकर तुरंत सतर्क हो जाने की जरूरत है।

इस चेतावनी का सबसे अहम पहलू शारीरिक परिश्रम से जुड़ा है, जिसकी भारतीय जीवन में जबर्दस्त अनदेखी हो रही है। इसमें महिलाओं और नहीं, बच्चों की बदलती जीवनशैली के भी संकेत निहित हैं। कारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और अब लोग छोटे- मोटे कामों में भी कारों का इस्तेमाल करने लगे हैं। यही नहीं, ई-कामर्स की बदौलत अब तो बाजार खुद लोगों के घरों में आ पहुंचा है। ऐसे में अधिक से अधिक कसरत आंखों और हाथ की उंगलियों की ही होती। है अन्यथा लोग हाथ-पांव हिलाए बिना टीवी के सामने जमे रहते हैं। । कहीं कोई चलने-फिरने का दबाव नहीं, जरूरत नहीं।

यह सही है कि चिकित्सा विज्ञान की बदौलत इंसान की औसत में इजाफा हो है, लेकिन लोग ऐसी बीमारियों से ग्रस्त रहने लगे हैं, जिन्हें जीवन-शैली सग्रस्त की बीमारियां कहा जाता | है। 'लैंसेट' ' में 2017 में प्रकाशित अध्ययन 'ग्लोबल बर्डन आफ डिजीज' ' में कहा गया था कि अमीर देशों के लोग यह समझने लगे हैं कि सेहत कितनी जरूरी है, इसलिए वे शारीरिक श्रम को महत्त्व देने लगे हैं, लेकिन भारत जैसे देशों में यह बात समझी नहीं जा रही। लिहाजा, गरीब और विकासशील देशों में अमीर मुल्कों की तुलना में लोग ज्यादा दिन बीमार रहते हैं। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट 2) शिक्षा से अधिक शादी पर खर्च विजय गर्ग हाल में एक खबर आई कि भारत के लोग शिक्षा की तुलना में विवाह पर लगभग दो गुना खर्च करते हैं। भारतीय विवाह उद्योग का मूल्य लगभग 10.7 लाख करोड़ रुपये है, जो इसे खाद्य और किराने के सामान के बाद दूसरा सबसे बड़ा उद्योग बनाता है।

एक भारतीय विवाह पर लगभग 12.5 लाख रुपये का खर्च होता है, जो किसी व्यक्ति की स्नातक तक की शिक्षा पर होने वाले खर्च का लगभग दोगुना है। भारतीय संस्कृति में शादियों का विशेष महत्व है। यह केवल दो व्यक्तियों का मिलन ही नहीं, बल्कि दो परिवारों का संगम और सामाजिक रीति-रिवाजों का उत्सव मनाने का अवसर भी होता है। पिछले कुछ दशकों में इन शादियों का खर्च आसमान छूने लगा है, जो बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है। दरअसल भव्य शादी परिवार की शान और समृद्धि का प्रदर्शन करने का तरीका बन गई है। दिखावे और प्रतिस्पर्धा की होड़ में लोग खर्ची की कोई सीमा नहीं रखते और अपनी क्षमता से अधिक खर्च करते हैं। महंगे कपड़े, आभूषण, एक से एक महंगे पकवान और भव्य सजावट, आज हर शादी का हिस्सा बन गए हैं। भारतीय समाज में शादी को जीवन का खास मौका माना जाता है।

इसलिए माता-पिता अपने बच्चों के लिए इसे बेहतर बनाना चाहते हैं। भावी दूल्हा और दुल्हन के मन में भी अपनी शादी को यादगार बनाने की प्रबल इच्छा रहती है। इस वजह से वे भी शादी से संबंधित खरीदारी करने और सजने संवरने में खुले हाथों पैसे खर्च करते हैं। शादी में दिया जाने वाला दहेज लड़की के माता-पिता पर खर्च का और अधिक बोझ बढ़ा देता है। वैसे तो दहेज कानूनन अपराध है, लेकिन अभी भी कई भारतीय परिवारों में यह प्रचलित है। जिन परिवारों के पास अधिक पैसा है, वे तो अपनी बेटी को अधिक से अधिक सामानों और उपहारों के साथ विदा करते हैं, लेकिन इसका दुष्प्रभाव उन गरीब परिवारों पर पड़ता है, जिनके पास पैसा नहीं है। फिर भी उन्हें समाज की देखा देखी कर्ज लेकर भी उपहार देने पड़ते हैं। शादी में होने वाले खर्च की वजह से कई परिवार बेटियों की शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं देते, क्योंकि बेटी के जन्म के साथ ही वे शादी के लिए बचत करना शुरू कर देते हैं।

विवाह एक खुशी का अवसर है, इसे बोझ नहीं बनने देना चाहिए। शादियों को खुशहाल और टिकाऊ बनाने के लिए लोगों को अनावश्यक खर्चों और दिखावे के नुकसान के बारे में जागरूक करना जरूरी है। हमें अपना सोच बदलना होगा और शादियों को सादगी से मनाने पर जोर देना होगा। दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों को भी जड़ से खत्म करना जरूरी है। सरकार को सरल और किफायती शादियों को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियां बनानी चाहिए। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट 3) लापरवाही की लत विजय गर्ग आज के हमारे सामान्य जीवन में सब कुछ बस यों ही चलता जा रहा है। चाहे हम घर पर हों या बाहर हों, हम सबका जीवन बदस्तूर जारी है।

बात सिर्फ इतनी-सी है कि हमने बस यों ही जीवन जीने की कला सीख ली है। हमारा पूरा जीवन 'चलता है सब ' के आधार पर चल रहा है। हमारे दादा परदादा ने चाहे जैसे भी जिंदगी जी हो, चाहे अपने जीवन में कितने ही नियम- कायदे रखे हों, लेकिन हमारे जीवन में आज कोई नियम - कायदा नहीं है और हम 'चलता है सब' के आधार पर सिर्फ अपने आप को बनाए रखने की कोशिश में लगे रहते हैं । बस के ड्राइवर से लेकर दफ्तर के बाबू तक के बीच यह बात अंदर तक बैठ गई है कि हमें बस चलताऊ काम करना है और काम के प्रति ज्यादा गंभीरता हमें नुकसान पहुंचा सकती है। इसी तरह की प्रवृत्ति हमें अपने देश के राजनेताओं में भी नजर आती है । उनके पास भी अगर कोई व्यक्ति अपनी छोटी समस्या लेकर जाता है, तो उनका भी यही जवाब होता है कि आज सब चलता है।

चाहे हम कहीं भी किसी भी चीज से जुड़े हों, हमारी प्रकृति में किसी भी काम को हल्के रूप में लेने की सोच जारी है। इसकी बहुत सारी वजहें हो सकती हैं, लेकिन एक मूल वजह यह हो सकती है कि हम सब लापरवाही के शिकार हैं और यही लापरवाही हमें मूल्य विघटन की ओर लेती जा रही है । मूल्य विघटन कोई मामूली बात नहीं है, फिर भी उसको सतही तौर पर लेने की हमारी एक आदत बनती जा रही है । ऐसा क्यों न हो कि हम सब बातों को ऊपरी तौर पर लेना बंद कर दें और उनकी गहराई तक पहुंचें ? समाज में अगर किसान मरता है तो कोई बात नहीं, राजनेता घोटाला करता है तो कोई बात नहीं, भाई अपने भाई को मारता है तो चलता है, गरीब और गरीब होता है तो चलता है, भ्रष्टाचार बढ़ता है तो चलता है आदि। ऐसा क्यों नहीं है कि हम सब अपनी गलती को स्वीकार करें और सही रास्ते पर चलें ? शायद ऐसा इसलिए है कि हम सभी लोग जीवन को एक यों ही चलने वाली अवस्था मानकर चलते हैं ।

काश ऐसा होता कि हम अपने जीवन को इतना हल्के तौर पर न लेते तो आज भारत की तस्वीर कुछ और ही होती। यहां अपने लोगों को दोषी ठहराने का इरादा नहीं है, लेकिन क्या हमने कभी देखा कि मेहनती लोग किस तरह से छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखकर अपने आप को मुसीबतों से बाहर निकाल लेते हैं ? अगर वे ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं ? फर्क सिर्फ नजरिए का है। अगर हम चाहें तो पूरी दुनिया बदल सकते हैं। जीवन सरलता और सहजता दोनों का नाम है, लेकिन यही सहजता कभी-कभी हमें वह नहीं सोचने देती जो हमें वाकई सोचना चाहिए। अपने पूरे जीवन का आकलन करते हुए सोचना चाहिए कि जब भी हमने किसी विषय पर गंभीरता से विचार और उस पर अमल किया है तो हमने कितनी उन्नति की है। चाहे वह हमारे स्कूल बोर्ड की परीक्षा हो या फिर नौकरी से जुड़ी कोई बात, जब-जब हमने इस 'चलता है सब' को त्यागा है, तब-तब हमने सफलता और एक कदम बढ़ाया है। सफलता केवल व्यक्तिगत सफलता को नहीं कहते, सफलता हमारी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों को भी समेटने की ताकत रखती है और सफलता के पीछे कैसी सोच होनी चाहिए, ये तो आप जानते ही हैं ।

'चलता है सब' के दोहरे मापदंड के साथ हम कभी भी अपनी पूर्ण सफलता का स्वाद नहीं चख सकते हैं, चाहे वह हमारा अपना जीवन हो या सार्वजनिक जीवन हो । कोशिश यह हो कि आज से और अभी से ही 'चलता है सब' के सतही जीवन को त्याग दिया जाए और अलग दौर की शुरुआत की जाए। जीवन को सकारात्मक परिवर्तन की ओर ले जाया जाए। इस तरह से हम अपने समाज को एक गंभीर चिंतन देने में सफल हो पाएंगे। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारा देश एक विशाल, लेकिन विविधता से भरा देश है। जिसकी अपनी समस्याएं हैं। ऐसे में अगर हम लोग प्रत्येक काम को अच्छे से करें और ध्यान रखें कि किसी काम में कोई लापरवाही न बरती जाए तो हम कहीं न कहीं देश को प्रगति के रास्ते पर लेकर जा सकते हैं । सड़क सुरक्षा का पालन करना हमें असामयिक दुर्घटनाओं से बचा सकता है, राजनेताओं पर पैनी दृष्टि रखने से वे लोग भ्रष्टाचार के रास्ते को भूल सकते हैं, नकल रोकने पर कई लोगों का भविष्य बन सकता है, सड़कों का ध्यान रखने से देश की सड़कें गड्ढा बनने से बच सकती हैं, प्रशासन को लापरवाही से बचाया जा सकता है।

 साथ ही हमारे व्यक्तिगत जीवन की उन्नति संभव हो सकती है । बात सिर्फ इतनी है कि चलता है किसी भी काम के प्रति हल्के नजरिए से इतर उसे गंभीरता से लिया जाए। अगर इतना भी कर लिया जाए तो आधी मुसीबत से बाहर निकलने में काफी मदद मिल सकती है। जीवन को खूबसूरती के साथ जीना एक मूल्य होना चाहिए, बस यह याद रखा जाए कि जीवन की गंभीर बातों को गंभीरता से लेकर अपना और राष्ट्र का उत्थान करने का साहस अपने अंदर कायम रखा जाए । अगर इतना काम हमने कर लिया तो 'चलता है सब' के दृष्टिकोण को हम भुला पाएंगे और एक नए युग की ओर कदम बढ़ाने में कामयाब हो पाएंगे।

 विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट