कर्म गति टारै नांहीं टरी
कर्म गति टारै नांहीं टरी
कर्म गति टारै नांहीं टरी ...
जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है।जीव की आत्मा कभी नहीं मरती।बस वो तो चोले बदलती है। हमारा जीवन लगातार बदलता रहता है। यह प्रकृति का अकाट्य शाश्वत नियम है ।इसका न कोई अपवाद न कोई अधिनियम हैं।
जन्म , युवा , वृद्धावस्था यह सतत चलते रहते है । बुढ़ापा आते ही मृत्यु से भय क्यों ? समय की महत्ता और शक्ति को न जानने वाले जिन्दगी की जंग हार जाते है। समय के साथ - साथ में कदमताल करने वाले अपने गंतव्य तक पहुंच जाते है ।
विज्ञ, प्रबुद्धजन समय की नब्ज पहचानने का मंत्र हमेशा हमे समझाते रहें है पर हम प्रमाद के वशीभूत बन सच्चाई और यथार्थ को भूल जाते हैं। मनुष्य अनंत शक्ति सम्पन्न प्राणी हैं।उसके पास चेतना है,शक्ति है और उसके प्रयोग की क्षमता।अब भी समझ ले हम कि जीवन जो शेष है बस वही विशेष है।जिसने संसार को बदलने की कोशिश की वो हार गया।जिसने ख़ुद को बदल लिया वो जीत गया ।
ख़ुद को इतना तैयार कर ले की बाहरी कोई भी वातावरण हमें छुए नही हमारे भीतर शांत सौम्य समता का भाव हो अपनी वृत्तियों में उद्दात्तीकरण।इसके लिए असत् वृत्तियों का परिहार और सद्वृत्तियों का विकास ज़रूरी है। यह क्रम सम्यक् आचरण से ही सम्भव हैं। हर प्राणी को सदैव यह याद रहे कि आत्मा अमर है,जन्म लिया है तो मृत्यु निश्चित है।इस जन्म के रिश्ते यँहि समाप्त हो जायेंगे तो किसी के वियोग में दुःख नहीं करना और किसी के आगमन पर अति खुश नहीं होना।
जितना हो सके अपनी तरफ़ से सत्कर्म करे और अपना अगले पड़ाव के लिये शुभ का संयोग निर्मित करे। अतः समझदारी उसी में हैं जो परिस्थिति आए उसे यदि बदली न जा सके तो स्वीकार कर ली जाए।उसी में मन: शांति हैं और असमंजस की क्रान्ति भी कोई
नहीं होगी । प्रकृति से टक्कर लेने में न कोई जीता है न कोई जीत सकेगा। जीत उसी की होगी जो होनहार को स्वीकार करता जाएगा। कबीरजी ने यही तो कहा है कि कर्म गति टारे नहीं टरी होनी हो के रहीं।
प्रदीप छाजेड़
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