चिन्तनीय दो बात
चिन्तनीय दो बात
उम्मीद का इस संसार में गजब तमाशा है । हम देखते है की लोग आशा लगा कर बैठे है ठगे जा रहे है लेकिन फिर भी आशा को लगाकर बैठे है कि आशा कभी भी फलेगी ।
जीवन के किसी ना किसी मोड़ पर स्वयं को असफल निराशा व हारा महसूस करते हैं तब मन में नकारात्मक विचार आने लगते हैं और हमारी आशाएं बिखर जाती है । सपने कांच की तरह टूट जाते हैं ।उस वक्त जरूरत होती है एक आशा की किरण सकारात्मक सोच की ताकि फिर से नवीन ऊर्जा के साथ कर्म पथ पर अग्रसर हो ।
निश्चित ही यह हम पर निर्भर करता है कि जीवन के सफर में सकारात्मक सोच से आगे बढ़े या नकारात्मक सोच से निराशा के गर्त में चले जाएं ।कहा भी है चलते चलते कदम थके, पर नकारात्मक सोच छोड़ कर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ो फिर से सकारात्मक सोच से नई उम्मीद जगाओ, नई राह बनाओ ।
जीवन का यह कड़वा सच है कि आज लोग आपसे हाथ मिला रहे है पास आ रहे है क्यों आ रहे है क्योंकि वे यूँ ही नहीं आ रहे है आपके पास बल्कि वो आपकी स्थिति से आपके पास आ रहे है समय बदला बदली स्तिथियाँ , विकास के साथ ,बदल गई ख़र्चों की परिस्थितियाँ , सुख-सुविधा- संसाधन बढ़े,शौक सुविधावाद और फिर खर्चे भी चढ़े ।
ख़र्चों की पूर्ति के लिए शुरू हुआ फिर पैसे का सिलिसिला , फलतः इंसान का जन्म हो या फिर मृत्यु -नैतिकता ने हर जगह है दम तोड़ा और-और की लालसा ने भ्रष्ट तरीक़े से आय के लिए अनैतिकता से नाता जोड़ा ।
अतः जरुरत हो या नहीं पर पैसे कमाने का साधन बन गया है अनैतिक आचरण और बेवजह मानव इस आपा धापी में जा रहा है ।ज़रूरत है इस स्थिति से बचने की । इस तरह झूठी आशा और पैसे की आसक्ति सचमुच मानव जीवन के लिये चिन्तनीय बाते है। प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)