मैं समाज सेवक हूँ
मैं समाज सेवक हूँ
मैंने देखा समझा अनुभव किया है कि लोग बोलते है मैं समाज सेवक हूँ लेकिन उनके अन्दर अहं , लालसा , ख्याति आदि - आदि भी भीतर में होते है या यो कहूँ की इसकी पृष्ठभूमि के इर्द - गिर्द ही उनके सब समाज सेवा के काम होते है ।
निष्काम कार्य करने की भावना नगण्य होती है । हमें अपनी आत्मा पर जो गरूर का पर्दा पड़ा हुआ है उसे हटाने की भरपूर कोशिश करनी चाहिये । इंसानियत हमारी जिंदा रहें तो हम जिंदा है बिना इसके हम में और मुर्दा में कोई अंतर नहीं बल्कि उससे भी हम बदतर है।हम चेते अब तो जब जागे तभी सवेरा।व्यक्ति और समाज की चिंतनीय स्थिति का समाधान इंसानियत है ।
अमीरी और गरीबी की भेदरेखा को मिटाने वाला हथियार इंसानियत हैं ।शरीरधारी इंसान तो आयुष्य सम्पन्न होने पर मरता है लेकिन इंसानियत हमेशा जिंदा रहती है तीनों काल में।हम इंसानियत पर हैवानियत को हावी होने का मौका नहीं दें अपने विवेक से ।यहीं सर्वोत्तम है। हमारे जीवन का यह कटु सत्य है कि जो आया हैं वह जायेगा ही जायेगा ।
पर जो किसी के दुख दर्द मे काम आयेगा वह सदियो तक याद रखा जायेगा।तभी तो महापुरुष कभी भी मुर्दा नही कहलाते हैं ।मरने के बाद भी वे अमर बन जाते हैं । लेकिन कई मनुष्य ऐसे भी होते हैं ।जो जीवित योग्य होते हुए भी किसी के काम नही आते हैं ।इंसानियत से भरी सांसे भी नही लेते हैं ।
क्योंकि दरअसल वे केवल नाम के सेवक होते हैं। इसके विपरीत असली समाज सेवक वे हैं जिनके दिल में नेह का सागर भरा हो , सेवारत श्रद्धा से सर नत हो , सहयोग के लिए सदा तत्पर हो , पॉंव सदा सन्मार्ग पर चलने को आतुर हों , सदा जिव्हा मृदु मित्तभाषी हो आदि - आदि ऐसे सु-लक्षण वाले ही निःस्वार्थ समाज सेवा कर सकते हैं। ओम् अर्हम सा ! प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)