बदलती व्यापक अर्थव्यवस्था में ग्रामीण रोजगार पर पुनर्विचार

Dec 22, 2025 - 21:36
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बदलती व्यापक अर्थव्यवस्था में ग्रामीण रोजगार पर पुनर्विचार

बदलती व्यापक अर्थव्यवस्था में ग्रामीण रोजगार पर पुनर्विचार

प्रोफेसर ज्योतिष सत्यापालन, एनआईआरडीपीआर

भारत की ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को ऐसे समय में स्वरुप दिया गया था, जब ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएं गंभीर आर्थिक संकट, सीमित गैर-कृषि अवसरों और कमजोर बुनियादी ढांचे से जूझ रहीं थीं। दो दशक बाद, व्यापक आर्थिक परिदृश्य बदल चुका है। गरीबी कम हुई है, ग्रामीण संपर्क में सुधार हुआ है और वित्तीय समावेशन का भी विस्तार हुआ है। इसके बावजूद, सार्वजनिक रोजगार की मांग लगातार बनी हुई है, जिसका मुख्य कारण पूर्ण अभाव नहीं बल्कि आजीविका का जोखिम, जलवायु अस्थिरता और असमान क्षेत्रीय विकास है। यही बदलाव रोजगार गारंटी ढांचे में सुधार की मांग करता है।

व्यापक आर्थिक नज़रिए से देखें तो, मजदूरी-आधारित रोजगार कार्यक्रम ग्रामीण अर्थव्यवस्था में स्थिरता लाने में लंबे समय से अहम भूमिका निभाते रहे हैं। ये मंदी के दौरान उत्पादों के उपभोग को सुचारू बनाते हैं, संकटग्रस्त पलायन को कम करते हैं और उन क्षेत्रों में मांग के लिए मददगार साबित होते हैं, जहां रोजगार के अवसर स्थिर नहीं रहते। भले ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की हिस्सेदारी कम हुई है, फिर भी यह कार्यबल के एक बड़े हिस्से को रोजगार प्रदान करती है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि रोजगार सृजन में स्थिर विकल्प प्रदान करने के लिए पर्याप्त तेजी से वृद्धि नहीं हुई है। यही संरचनात्मक असंतुलन बताता है कि सार्वजनिक रोजगार आज भी क्यों ज़रुरी है। विकसित भारत–रोजगार और आजीविका मिशन (ग्रामीण) विधेयक, 2025 ग्रामीण रोजगार को एक व्यापक राजकोषीय ढांचे में एकीकृत करने का प्रयास करता है। इसे केवल कल्याणकारी व्यय के रूप में मानने के बजाय, विधेयक आजीविका सुरक्षा को उत्पादकता, संपत्ति सृजन और योजनाओं के समन्वय से जोड़ता है, जो विकसित भारत, 2047 के दीर्घकालिक विकास दृष्टिकोण के अनुरूप है। पिछले करीब दो दशकों के अनुभव से पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में वेतनभोगी रोजगार की ज़रुरत खत्म नहीं हुई है।

हालांकि दीर्घकालिक गरीबी में कमी आई है, फिर भी ग्रामीण परिवारों का एक बड़ा हिस्सा जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य आपात स्थितियों और बाजार में उतार-चढ़ाव से प्रभावित होता रहता है। वर्षा आधारित, जनजातीय और सूखाग्रस्त क्षेत्रों में सार्वजनिक रोजगार की तेज़ मांग बनी हुई है। यह स्थायी गरीबी के बजाय आय में अस्थिरता को दर्शाता है। साथ ही, कार्यान्वयन के नतीजे वैधानिक पात्रता और वास्तविक उपलब्धता के बीच लगातार अंतर को दर्शाते हैं। हालांकि कानून प्रति परिवार 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है, लेकिन अधिकांश वर्षों में प्रदान किए गए कार्य दिवसों की औसत संख्या इस सीमा से काफी कम रही है। इससे स्वतः स्थिरीकरण के रूप में सार्वजनिक रोजगार की भूमिका कमजोर होती है और मंदी के दौरान ग्रामीण मांग को समर्थन देने की इसकी क्षमता भी कम हो जाती है। इस लिहाज़ से प्रति परिवार वैधानिक गारंटी को 100 से बढ़ाकर 125 दिन करना एक ज़रुरी व्यापक आर्थिक फैसला है। यह कमजोर परिवारों के लिए आय की पूर्वानुमान्यता में सुधार करता है और सार्वजनिक व्यय की प्रतिचक्रीय भूमिका को मजबूत करता है। जलवायु संबंधी मुश्किलों या कृषि में मंदी के दौर में, इस तरह का विस्तार उपभोग को बनाए रखने और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में समस्याओं को सीमित करने में मदद कर सकता है।

पिछले अनुभवों से मिला एक अहम वित्तीय सबक यह है कि संपत्ति सृजन से जुड़ा ग्रामीण रोजगार अधिक प्रभावी परिणाम देता है। समय के साथ, जल संरक्षण, भूमि विकास और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन कार्यों के ज़रिए रोजगार का एक बड़ा हिस्सा सृजित हुआ है। इन निवेशों से कई लाभ मिले हैं, जिनमें फसल सघनता में सुधार, भूजल स्तर में स्थिरता और सूखे के प्रति जोखिम में कमी शामिल है। नए ढांचा के तहत जल सुरक्षा, मूलभूत ग्रामीण अवसंरचना, आजीविका संबंधी संपत्तियों और जलवायु के लिहाज़ से कार्यों को रोजगार नियोजन के केंद्र में रखा गया है। यह रोजगार व्यय को मुख्य रूप से राजस्व व्यय के रूप में देखने से हटकर, इसे एक विकेंद्रीकृत सार्वजनिक निवेश के रूप में मान्यता देने की दिशा में बदलाव का संकेत है। वित्तीय नज़रिए से, यह सार्वजनिक व्यय के उत्पादन मूल्य में सुधार करता है और मध्यम अवधि के विकास को बढ़ावा देता है। संपत्ति-केंद्रित रोजगार संवेदनशील क्षेत्रों में राहत व्यय पर बार-बार निर्भरता को कम करके भविष्य के वित्तीय दबावों को भी कम करता है। इन मायनों में, विधेयक अल्पकालिक आय सहायता को दीर्घकालिक उत्पादकता लाभों के साथ संरेखित करता है। पहले के कार्यान्वयन में एक और बाधा टुकड़ों में बंटी योजनाएं थी। अलग-थलग, योजना-आधारित कार्यों ने पैमाने को सीमित कर दिया और संपत्तियों की गुणवत्ता को कमजोर कर दिया। विकसित ग्राम पंचायत योजनाओं की शुरुआत ने रोजगार कार्यों को एकीकृत, ग्राम-स्तरीय विकास योजनाओं के तहत रखकर इस समस्या का समाधान किया है। स्थानिक उपकरणों का उपयोग करके तैयार की गई और राष्ट्रीय योजना प्लेटफार्मों के अनुरूप बनाई गई ये योजनाएं बुनियादी ढांचे, जल, आवास और आजीविका निवेशों में समन्वय को बेहतर बनाती हैं। कार्यों को एक एकीकृत ग्रामीण बुनियादी ढांचे के ढांचे में समेकित करने से दोहराव कम होता है और सार्वजनिक निवेश की दक्षता में सुधार होता है।

इससे ग्रामीण रोजगार को एक समानांतर प्रणाली के रूप में मानने के बजाय व्यापक विकास प्रक्रिया के तहत रखा जाता है। राज्यों को बुवाई और कटाई के लिए सर्वश्रेष्ठ मौसमों के दौरान 60 दिनों तक सार्वजनिक कार्यों को रोकने की अनुमति देने वाले प्रावधान का श्रम बाजार पर साफ असर दिखाई देता है। इन अवधियों के दौरान, कृषि श्रमिकों की मांग बढ़ जाती है और बाजार मजदूरी में वृद्धि होती है। एक साथ चल रहे बड़े सार्वजनिक निर्माण कार्यों से श्रम की उपलब्धता पर दबाव पड़ सकता है, किसानों के लिए इनपुट लागत बढ़ सकती है और उत्पादन प्रभावित हो सकता है। स्थानीय स्तर पर निर्धारित समय-सीमा के भीतर सार्वजनिक रोजगार को रोकना, कृषि गतिविधियों को प्रभावित करने से रोकने में मददगार होती है। अहम बात यह है कि उच्च वार्षिक रोजगार गारंटी कार्यदिवसों में मौसमी कमी की भरपाई कर देती है। अग्रिम योजना के साथ, रोजगार को कम काम वाले समय में भी वितरित किया जा सकता है, जिससे समग्र उपलब्धता में कमी नहीं आती और कृषि उत्पादकता और मजदूरी आय दोनों को मदद मिलती है। इस विधेयक में राजकोषीय पूर्वानुमान में सुधार लाने के लिए मानक आवंटन का भी प्रावधान है। नियम-आधारित आवंटन राज्यों को मध्यम अवधि के राजकोषीय ढाँचे के तहत रोजगार व्यय की योजना बनाने की अनुमति देते हैं, जिससे विलंबित प्रतिपूर्ति और प्रतिक्रियाशील बजट जैसी समस्याओं का भी समाधान होता है। साझा राजकोषीय उत्तरदायित्व से बेहतर परिसंपत्ति चयन और रखरखाव को भी मदद मिलती है। इसके साथ ही, समानता संबंधी चिंताओं के लिए पारदर्शी आवंटन मानदंड, समय पर निधि की प्राप्ति और राजकोषीय रूप से कमजोर राज्यों के लिए सुरक्षा उपायों की ज़रुरत है। डिजिटल निगरानी, सार्वजनिक जानकारी प्रदान करना और मज़बूत सामाजिक लेखापरीक्षाओं पर जोर देने का मकसद व्यय अनुशासन में सुधार करना और वितरण प्रणालियों में विश्वास बहाल करना है। अहम बात यह है कि विधेयक रोजगार गारंटी के अधिकार-आधारित मूल सिद्धांतों को बरकरार रखता है, जिसमें अधिसूचित वेतन दरें और रोजगार न मिलने की स्थिति में बेरोजगारी भत्ता शामिल है। वर्तमान में जो बदला है, वह इन अधिकारों को प्रदान करने का ढांचा है।

जलवायु जोखिम, असमान विकास और श्रम बाजार की बाधाओं से प्रभावित ग्रामीण अर्थव्यवस्था में, सार्वजनिक रोजगार एक ज़रुरी व्यापक आर्थिक साधन बना हुआ है। अधिकारों का विस्तार करके, योजनाओं में सुधार करके, परिसंपत्ति गुणवत्ता और राजकोषीय अनुशासन को मज़बूत करके, नया ढांचा ग्रामीण रोजगार के मूल वादे को नवीनीकृत करने का प्रयास करता है। बदलते व्यापक आर्थिक परिदृश्य में, अनुभवों के आधार पर सुधार करना पीछे हटना नहीं, बल्कि नवीनीकरण करना है।