आज भी जारी है सत्ता की सियासत में परिवारवाद
आज भी जारी है सत्ता की सियासत में परिवारवाद
(कुमार कृष्णन -विनायक फीचर्स)
बिहार में सत्ता की सियासत में परिवारवाद का खेल जारी है। प्रदेश की कई पार्टियों ने अपने सगे संबंधियों को ही चुनावी मैदान में उतारा है। लगभग हर जिले में किसी न किसी बड़े सियासी घराने के बेटे, बेटी, दामाद, बहू या पत्नी चुनावी अखाड़े में हैं। गायघाट से गया, रोहतास से औरंगाबाद और समस्तीपुर से लेकर मुजफ्फरपुर तक, टिकट बंटवारे में पारिवारिक समीकरण देखे जा सकते हैं। बीजेपी, जेडीयू, राजद और रालोमो ने अपने परिवार वालों पर ही भरोसा जताया। किसी सांसद की पत्नी मैदान में हैं तो कहीं पूर्व मंत्री के बेटे को टिकट मिला। कहीं, दामाद से उम्मीदें हैं तो कहीं बहू और समधिन को प्रचारक बनाया। सारण के गरखा से चिराग ने अपने भांजे सीमांत मृणाल को मैदान में उतारा है। जिससे साफ होता है कि बिहार की राजनीति में वंशवाद सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति बन चुकी है। नेताओं के घरों से निकली नई पीढ़ी अब अपनी सियासी पहचान गढ़ने को तैयार है। गया की दस सीटों में चार हम (हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा ) को मिलीं हैं।
इन सभी पर जीतनराम मांझी ने परिवार या रिश्तेदारों को उतारा है। टिकारी से डॉ. अनिल कुमार और अतरी से उनके भतीजे रोमित कुमार उम्मीदवार हैं। बाराचट्टी से ज्योति देवी मांझी (समधिन) और इमामगंज से दीपा मांझी (पतोहु) मैदान में हैं। उधर, चेरिया बरियारपुर में जदयू ने पूर्व मंत्री मंजू वर्मा के बेटे अभिषेक आनंद को टिकट दिया, जबकि राजद ने पूर्व मुख्यमंत्री सतीश प्रसाद सिंह के बेटे सुशील सिंह कुशवाहा को उतारा। गायघाट से जदयू प्रत्याशी कोमल सिंह की मां वीणा देवी वैशाली से सांसद हैं। पिता जदयू के एमएलसी हैं।उनके अलावा सकरा में जदयू विधायक अशोक चौधरी के बेटे आदित्य कुमार चुनावी मैदान में हैं। मीनापुर से जदयू ने पूर्व मंत्री दिनेश प्रसाद सिंह के बेटे अजय कुशवाहा को टिकट दिया। कुढ़नी से बबलू कुशवाहा ससुर बसावन भगत (पूर्व मंत्री) की परंपरा आगे बढ़ा रहे हैं। साहेबगंज में राजद ने पूर्व मंत्री राम विचार राय के दामाद पृथ्वीनाथ राय को उम्मीदवार बनाया। बरूराज से वीआईपी के ई. राकेश राय चुनाव मैदान में हैं, पिता शशि राय पांच बार विधायक रह चुके हैं। सासाराम से स्नेहलता (उपेंद्र कुशवाहा की पत्नी) रालोमो प्रत्याशी हैं। दिनारा से आलोक सिंह (मंत्री संतोष सिंह के भाई) मैदान में हैं। औरंगाबाद से गोपाल सिंह के पुत्र त्रिविक्रम नारायण सिंह भाजपा प्रत्याशी हैं। करगहर में संतोष मिश्रा (पूर्व मंत्री गिरीश नारायण के पुत्र) कांग्रेस के उम्मीदवार बनाए गए हैं।नवीनगर से जदयू ने चेतन आनंद (आनंद मोहन और लवली आनंद के पुत्र) को मैदान में उतारा है।
तरारी-बक्सर इलाके में पांडेय परिवार का क्षेत्र में प्रभाव है। तरारी से भाजपा विधायक विशाल प्रशांत (पूर्व जदयू विधायक सुनील पांडेय के पुत्र) फिर मैदान में हैं। उनके चाचा हुलास पांडेय बक्सर की ब्रह्मपुर सीट से लोजपा (आर) के प्रत्याशी हैं। शाहपुर से राकेश रंजन (दिवंगत भाजपा उपाध्यक्ष विश्वेश्वर ओझा के पुत्र) भाजपा प्रत्याशी हैं। जगदीशपुर से राम विष्णु सिंह लोहिया के बेटे किशोर कुणाल को टिकट मिला है। आधिकारिक वेबसाइटों, चुनावी हलफनामों और भारत के चुनाव आयोग की रिपोर्टों के आंकड़ों से पता चला है कि सभी राजनीतिक दल प्रथम परिवारों के प्रभाव में हैं। देश भर के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि कांग्रेस, अपनी सिकुड़ती चुनावी उपस्थिति के बावजूद, इस सूची में शीर्ष पर है जिसके 33.25% सांसद, विधायक और विधान परिषद सदस्य राजनीतिक परिवारों से आते हैं। भारतीय जनता पार्टी, जो स्पष्ट रूप से एक अलग संगठन है, अपने प्रतिद्वंद्वी के साथ कदमताल मिला रही है। इसके 2,078 विधायकों में से, अनुमानित 18.62% वंशवादी हैं। यह भी चौंकाने वाली बात है कि जब राज्य विधानसभाओं या संसद में एक से अधिक सदस्यों वाले परिवारों की बात आती है, तो भाजपा नंबर एक स्थान पर है भाजपा के सहयोगी दलों में, तेलुगू देशम पार्टी के 163 विधायकों में से 51 विधायक वंशवादी हैं, जबकि जनता दल (यूनाइटेड) के 81 विधायकों में से 28 वंशवादी हैं। यह परिवार द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, जो राष्ट्रीय विपक्ष के कुछ घटक हैं, में भी फैसले लेता है।
लोकतंत्र में, रिश्तेदारों को राजनीतिक उत्तराधिकार का अधिकार देने से रोकने वाला कोई नियम नहीं है। लेकिन यह परंपरा कई कारणों से लोकतंत्र की भावना के प्रतिकूल है। उदाहरण के लिए, लोकतंत्र के गहराने से आदर्श रूप से राजनीतिक दलों की पहुँच आम लोगों के लिए अधिक सुलभ होनी चाहिए। हालाँकि, इस समय एक विपरीत समीकरण प्रचलित है - जो योग्यता के सिद्धांत के लिए हानिकारक है - जिसमें एक राजनीतिक दल ऐसे पारिवारिक पूंजीहीन लोगों पर भरोसा करने के बजाय नेता के परिवार के सदस्यों के प्रति वफ़ादार रहना पसंद करता है। यह पार्टियों को नई पीढ़ी के नेताओं को आगे बढ़ाने के लिए तैयार करने से भी रोकता है। इस कमी के गंभीर परिणाम होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि एक नेता का निधन या अयोग्यता आंतरिक पारिवारिक कलह की संभावना को बढ़ा सकता है, जिससे दलबदल या यहाँ तक कि एक राजनीतिक इकाई का विघटन भी हो सकता है। राजनीतिक संस्थाओं पर परिवार की पकड़ के कारण सामूहिक असंतोष के संकेत मिल रहे हैं। डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जिसमें नेतृत्व क्षमता हो वो आगे आएं और राजनीति में वंशवाद की कोई जगह नहीं। देश की आजादी के इतने वर्षों बाद भी परिवारवाद की जड़ें मजबूत और गहरी होती चली गईं है। लोहिया का नाम लेनेवालों दलों ने तो लोहिया का अनुसरण ही नहीं किया। किसी एक एक दल की बात नहीं कांग्रेस पर सवाल खड़े करने वाली बीजेपी भी इससे अछूती नहीं। अलग-अलग जातियों और पिछड़े लोगों के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियां भी विरासत परिवार को ही सौंपते हैं। *(विनायक फीचर्स)*





