एआइ की भूख और रचनात्मकता की उपेक्षा

Jul 20, 2025 - 08:44
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एआइ की भूख और रचनात्मकता की उपेक्षा

एआइ की भूख और रचनात्मकता की उपेक्षा

जेनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नाम पर क्रिएटर्स की बौद्धिक संपदा का उल्लंघन किया जा रहा है। अमेरिका में चल रहे मुकदमे इसकी पुष्टि करते हैं। चैटजीपीटी, क्लाउड, जेमिनी जैसे एआइ टूल बिना अनुमति के किताबें, लेख, समाचार, कविता और फोटो कंटेंट चुराकर उन्हें थोड़े बदलाव के साथ नए रूप में पेश कर रहे हैं। हाल ही में एक कंपनी के खिलाफ दायर मुकदमे में चौंकाने वाली बात सामने आई। लेखकों ने आरोप लगाया कि इस कंपनी ने सात करोड़ किताबों की चोरी की गई। प्रतियों से भरी बुक्स-3 नामक लाइब्रेरी का इस्तेमाल किया। दरअसल ये सभी किताबें बिना अनुमति के डाउनलोड की गई थीं। कंपनी का कहना है कि उन्होंने वैध किताबें खरीदी थीं, जबकि वे चोरी की गई लाइब्रेरी का इस्तेमाल कर रहे थे। जून, 2025 में कोर्ट के फैसले में जज ने उस कंपनी और मेटा दोनों के पक्ष में फैसला सुनाया है।

कोर्ट का तर्क है कि यह उचित उपयोग की श्रेणी में आता है, क्योंकि एआइ ट्रांसफार्मेटिव काम कर रहा है। लेकिन यह तर्क कितना सही है ! ट्रांसफार्मेटिव काम वह होता है जो मूल कंटेंट को नया अर्थ देता है, न कि उसे चुराकर व्यावसायिक लाभ उठाता है। भारत में भी कई प्रकाशकों ने ओपनएआइ के खिलाफ मुकदमा दायर किया है। उनका आरोप है कि चैटजीपीटी ने बिना अनुमति के भारतीय समाचार और सामग्री का उपयोग किया है। ओपनए आइ का दावा है कि वे केवल तथ्य प्रस्तुत करते हैं। भले ही तथ्य सार्वजनिक हों, लेकिन उनकी प्रस्तुति, भाषा और संदर्भ निर्माता की बौद्धिक संपदा है। समस्या यह है कि भारत के कापीराइट अधिनियम 1957 में एआइ के लिए स्पष्ट प्रविधान नहीं हैं। इसी कमजोरी का फायदा प्रौद्योगिकी कंपनियां उठा रही हैं। समय का तकाजा है। कि हमारे नीति निर्माताओं को इस दिशा में तुरंत कदम उठाने चाहिए। सच्चाई यह है कि एआइ कंपनियां अरबों डालर का मुनाफा कमा रही हैं, लेकिन जिन रचनाकारों के काम पर यह कारोबार फलफूल रहा है, उन्हें फूटी कौड़ी भी नहीं मिल रही। यह अन्याय ही नहीं, बल्कि क्रिएटर्स की आजीविका पर भी हमला है। एआइ कंपनियों को क्रिएटर्स से लाइसेंस लेने की जरूरत है।

जैसे म्यूजिक कंपनियां कलाकारों को रायल्टी देती हैं, वैसे ही इन कंपनियों को भी करना चाहिए। अगर वे वाकई बदलावकारी काम कर रही हैं, तो उन्हें फीस देने में क्या दिक्कत है? सरकारों को कापीराइट कानून बदलने चाहिए। तकनीक के नाम पर चोरी को जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर क्रिएटर्स की कीमत पर एआई का विकास किया जा रहा है, तो यह गलत दिशा में जा रहा है। उपभोक्ताओं को भी जागरूक होना चाहिए। जब आप एआइ टूल्स का उपयोग करते हैं तो समझ लें कि इसके पीछे लाखों लेखकों और पत्रकारों की मेहनत है। तकनीकी विकास मानवीय मूल्यों के खिलाफ नहीं होना चाहिए । एआइ की भूख और रचनात्मकता की उपेक्षा जेनरेटिव आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नाम पर क्रिएटर्स की बौद्धिक संपदा का उल्लंघन किया जा रहा है। अमेरिका में चल रहे मुकदमे इसकी पुष्टि करते हैं। चैटजीपीटी, क्लाउड, जेमिनी जैसे एआइ टूल बिना अनुमति के किताबें, लेख, समाचार, कविता और फोटो कंटेंट चुराकर उन्हें थोड़े बदलाव के साथ नए रूप में पेश कर रहे हैं।

हाल ही में एक कंपनी के खिलाफ दायर मुकदमे में चौंकाने वाली बात सामने आई। लेखकों ने आरोप लगाया कि इस कंपनी ने सात करोड़ किताबों की चोरी की गई। प्रतियों से भरी बुक्स-3 नामक लाइब्रेरी का इस्तेमाल किया। दरअसल ये सभी किताबें बिना अनुमति के डाउनलोड की गई थीं। कंपनी का कहना है कि उन्होंने वैध किताबें खरीदी थीं, जबकि वे चोरी की गई लाइब्रेरी का इस्तेमाल कर रहे थे। जून, 2025 में कोर्ट के फैसले में जज ने उस कंपनी और मेटा दोनों के पक्ष में फैसला सुनाया है। कोर्ट का तर्क है कि यह उचित उपयोग की श्रेणी में आता है, क्योंकि एआइ ट्रांसफार्मेटिव काम कर रहा है। लेकिन यह तर्क कितना सही है ! ट्रांसफार्मेटिव काम वह होता है जो मूल कंटेंट को नया अर्थ देता है, न कि उसे चुराकर व्यावसायिक लाभ उठाता है। भारत में भी कई प्रकाशकों ने ओपनएआइ के खिलाफ मुकदमा दायर किया है। उनका आरोप है कि चैटजीपीटी ने बिना अनुमति के भारतीय समाचार और सामग्री का उपयोग किया है। ओपनए आइ का दावा है कि वे केवल तथ्य प्रस्तुत करते हैं। भले ही तथ्य सार्वजनिक हों, लेकिन उनकी प्रस्तुति, भाषा और संदर्भ निर्माता की बौद्धिक संपदा है। समस्या यह है कि भारत के कापीराइट अधिनियम 1957 में एआइ के लिए स्पष्ट प्रविधान नहीं हैं। इसी कमजोरी का फायदा प्रौद्योगिकी कंपनियां उठा रही हैं। समय का तकाजा है। कि हमारे नीति निर्माताओं को इस दिशा में तुरंत कदम उठाने चाहिए।

सच्चाई यह है कि एआइ कंपनियां अरबों डालर का मुनाफा कमा रही हैं, लेकिन जिन रचनाकारों के काम पर यह कारोबार फलफूल रहा है, उन्हें फूटी कौड़ी भी नहीं मिल रही। यह अन्याय ही नहीं, बल्कि क्रिएटर्स की आजीविका पर भी हमला है। एआइ कंपनियों को क्रिएटर्स से लाइसेंस लेने की जरूरत है। जैसे म्यूजिक कंपनियां कलाकारों को रायल्टी देती हैं, वैसे ही इन कंपनियों को भी करना चाहिए। अगर वे वाकई बदलावकारी काम कर रही हैं, तो उन्हें फीस देने में क्या दिक्कत है? सरकारों को कापीराइट कानून बदलने चाहिए। तकनीक के नाम पर चोरी को जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर क्रिएटर्स की कीमत पर एआई का विकास किया जा रहा है, तो यह गलत दिशा में जा रहा है। उपभोक्ताओं को भी जागरूक होना चाहिए। जब आप एआइ टूल्स का उपयोग करते हैं तो समझ लें कि इसके पीछे लाखों लेखकों और पत्रकारों की मेहनत है। तकनीकी विकास मानवीय मूल्यों के खिलाफ नहीं होना चाहिए ।

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