भैतिकता की चकाचौंध में हम कहाँ?
भैतिकता की चकाचौंध में हम कहाँ?
भाग-3
हमारा विकास व प्रगति का क्रम निरंतर चलता रहे रुकें नहीं, विकास की यात्रा में सिर उठा कर हमको चलना है वह कभी हमारा सिर झुके नहीं परन्तु आर्थार्जन व सत्ता की दौड़ में संतुष्टि का बड़ा महत्वपूर्ण अर्थ है क्योंकि हम भौतिकतावाद की इस दुनियाँ में इतने मशगूल हो गये है कि अर्थ की इस अंधी दौड़ में धन अर्जित तो खूब कर रहे हैं पर अपने सही संस्कार और आध्यात्मिक गतिविधियों से दूर जा रहे हैं।वह आज जिसे देखो वो एक दूसरे से आगे निकलने के चक्कर में आर्थिक तरक़्क़ी तो खूब कर रहा है पर धर्ममाचरण में पिछड़ रहा है। हम जब अतीत में देखते हैं तो अनुभव होता है कि हमारे पूर्वज बहुत संतोषी होते थे।वो धन उपार्जन के साथ अपना धर्म आचरण कभी नहीं भूलते थे।वह जब उनके अंदर सही से आध्यात्मिक और धार्मिक आचरण कूट-कूट कर भरे हुये होते थे तब वो ही संस्कार वो अपनी भावी पीढ़ी को देते थे।
वह आर्थिक प्रतिस्पर्धा से कोसों दूर रहते थे।आज के समय चिंतन का मुख्य बिंदु यही दर्शाता है कि अगर होड़ लगाओगे तो दौड़ ही लगाओगे पर आध्यात्मिक और धार्मिक गुणों से विमुख हो जाओगे।अतः जीवन में दौड़ जरुर लगाओ पर साथ में आध्यात्मिकता और धार्मिकता भी जीवन में धारण करनी चाहिये। तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब विदा हुआ तो ख़ाली हाथ इसलिये कर्म ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।जीवन की इस भागम-भाग में हमारी आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता है । भौतिकता में फँसना,बाहरी साधनों की कामना क्षणिक है ।
सुख और शांति ही सदैव स्थायी है वह बाहर नही अपितु अपने अंदर है। हम इंसान भी दुःख आता है तो अटक जाते है औऱ सुख आता है तो भटक जाते हैं। यहाँ संसार में बहुत सौदे होते हैं मगर सुख बेचने वाले और दुःख खरीदने वाले नहीं मिलतें है । अतः जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया है । वह इसके विपरीत जीवन और और के चक्कर में न रह जाएगा और यूं ही बीत जाएगा क्योंकि जीवन के अंतिम पड़ाव में केवल अच्छे कर्म ही साथ में जाएंगे ।वह हमारे अच्छे कर्म ही हमारा संसार भ्रमण कम कराते है । प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)