निमित योग
निमित योग भाग-2
इसी यात्रा में साध्वी कृतार्थ प्रभा जी जो उस समय अमेरिका में समणीजी थे उन्होंने सुदूर से मेरे को मानो भाँप लिया हो ( मेरे स्वास्थ्य आदि वजह से मैं अभी तक उनके दर्शन नहीं कर पाया हूँ ) उन्होंने भी लेखन में मेरे को खूब- खूब प्रेरित किया व मेरे से अमेरिका में कार्यक्रम करवाना आदि चिन्तन मनन करते थे उनका कैसे योग बना व कैसे उनके मन में मेरे प्रति विश्वास खूब- खूब आया मुझे नहीं पता केवली जाने लेकिन उनके विश्वास में मैं अपने आपको पूर्ण रूप से खरा उतरने का अवश्य प्रयास किया मेरे मन में आज भी उनके प्रति वह लेखन के आध्यात्मिक शिक्षक है यह भाव है । उस समय मुनिवर बोलते थे प्रदीप तेरा विवेक तेरी समझ से धर्म संघ में समझ सेवा दे मुनिवर अन्तिम समय में जब व्यख्यान देना बंद उनका होना वाला था तो मेरे से व्यखायान देने के विषय चर्चा पहले करने लगे शिक्षक को मैं क्या बोलू लेकिन उनको मैंने भाँप जो उचित राय लगती वो दे देता ।
मुनिवर प्रायः प्रायः मुझे बोलते थे लेखन के हम तेरे दो शिक्षक ( दिवंगत शासन श्री मुनि श्री पृथ्वीराजजी जी स्वामी ( श्रीडुंगरगढ़ ) साध्वी कृतार्थ प्रभा जी ) है । यह दोनों मेरे लेखन के उपकारी है । मुनिवर जैसे उन्होंने मेरे को पहले भाँप लिया हो क्योकि वो मेरे आध्यात्मिक शिक्षक थे उनको मेरे पर विश्वास था जीवन की दिशा योजना गहरी लम्बी ऊँची पहले ही उन्होंने मेरी खींच ली । खेर! वो तो नहीं रहे दूसरे शिक्षक व उनकी गहरी उच्च सोच के निर्देशानुसार मैं अपने आपको को गतिशील करने व चलने को प्रयासरत हूँ । यह निमित योग था उन्होंने मेरे पाँवो की बीमारी व मेरे जीवन का खाका खींचा नई सोच नया चिन्तन नया उत्साह से भरपूर रहकर मुझे बिना रुकावट के रहने को प्रेरित किया हालाँकि मेरे पग- पग पर खूब- खूब रुकावट आयी चुनौतियाँ भी आयी क्योकि जीवन चुनौती है लेकिन यह मुझे सकरात्मकता प्रदान करती है । समय परिवर्तनशील है कुछ होता है तो अच्छे के लिए होता है और आगे अच्छा होगा इस सोच से मैं ओत- प्रोत रहता हूँ ।
हाँ ! बात अपनी कह दो कोई गलत सोचे करे तो अच्छा व अच्छा सोचे तो और अच्छा क्यों हम गठरी पाप की बाँधे मन हल्का कर रहे । यह मेरा चिन्तन अनुभव बोल रहा हूँ । अंतराय कर्म के क्षयोपशम से हमें कोई भी प्राप्त होता है और उसमे हमारा शुभ योग का उदय भी साथ में निमित बनता है ।हमे अन्तराय का क्षयोपशम व शुभ योग का उदय ( शुभ नाम कर्म आदि का उदय ) के साथ सही से सम्मान आदि मिलता है । वह काम करने का मौक़ा भी मिलता है और अनुकूल कोई न कोई व कहीं न कहीं सहयोगी भी मिलता है जिससे हम अच्छा काम कर लेते है ।
हमारी जो आत्मीय शक्ति होती है वह ही हमारी ईश्वरीय शक्ति होती है । स्वाध्याय- ध्यान -योग-साधना-समता आदि से जो हम उपाय कर सके ,हमें करना चाहिए जैसे - जैसे कर्मों का निर्जरण होता है वैसे - वैसे हमारी शक्ति भी प्रकट होती जाती है और एक समय ऐसा आता है जब 4 घाती कर्मों का क्षय हो जाता हैं ।वह इससे अनत ज्ञान , दर्शन , चारित्र और शक्ति प्राप्त हो आत्मा का शुद्ध रूप यानी कि केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है । ज्ञानयुक्त आत्मा प्रकाशमय हो जाती है। प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)