छोटे पर्दे का परिवार
 
                                छोटे पर्दे का परिवार
आजकल सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर जरूरत से ज्यादा सक्रियता की वजह से लोगों के समाज और परिवार से कटने की शिकायतें की जाती हैं और काफी हद तक यह सही भी है। मगर वाट्सएप, इंस्टा, फेसबुक, रील, एक्स जैसे सोशल मीडिया के माध्यमों की सक्रियता बढ़ने के बावजूद घर-परिवार के सदस्यों में आज भी छोटे पर्दे के प्रति रुझान बना हुआ है।
सुबह और दोपहर पारिवारिक या व्यावसायिक व्यस्तता के कारण पहले के मुकाबले वे समय कम दे पाते हैं, लेकिन शाम के मुख्य समय या 'प्राइम टाइम' में परिवार के लोग, विशेष रूप से महिलाएं टेलीविजन के सामने बैठकर विभिन्न चैनलों पर आ रहे अपने पसंदीदा पारिवारिक धारावाहिक जरूर देखती हैं। ऐसे धारावाहिकों में दिखाए जा रहे संयुक्त परिवार और उनकी भव्यता, अरबों का कारोबार, शराब पार्टियां, आभिजात्य दर्प और रुतबा, अपनी जरूरतें भी सुगमता से पूरी करने में असमर्थ परिवारों को सपनों का संसार लगता है। वहीं संयुक्त परिवार पर एकछत्र राज करने के लिए किए जाते षड्यंत्र, भाई- भाई, बहन- भाई, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, सास- बहू, देवरानी-जेठानी जैसे आत्मीय रिश्तों के बीच संदेह और अविश्वास का भाव, सच्चे और खरे सदस्यों पर झूठे आरोप-प्रत्यारोप, उन्हें फंसाने की कोशिशें, समाज की स्वस्थ परंपराओं की अनदेखी, गैरजरूरी स्वच्छंदता जैसी स्थितियां उन्हें असहज करती हैं।
धारावाहिकों की ये कहानियां और उनके किरदार झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर आभिजात्य वर्ग के घर, परिवार और उनके निजी कक्ष तक हर दिन पहुंच रहे हैं। लाखों-करोड़ों भारतीय परिवारों के लोग मनोरंजन के ध्येय से पर्दे के सामने बैठते हैं । उन धारावाहिकों के परिवारों में वर्चस्व के लिए रची जाती व्यूह रचना उत्सुकता का भाव बनाए रखती है। कई बार यह साफ दिखता है कि छोटे पर्दे के संयुक्त परिवार के कई सदस्य आर्थिक संपन्नता और असीम सुख-सुविधाओं के बावजूद संतोष और तृप्ति का अहसास नहीं करते, बल्कि वे मानसिक रूप से उद्वेलित दिखते हैं।
वे अपने परिजनों के साथ धोखाधड़ी, बेईमानी और षड्यंत्र करके और संपन्न बनने की सीमाहीन लालसा में आकंठ डूबे हुए लगते हैं। उनके लिए ,संपदा और ऐश्वर्य प्रमुख हैं, पारिवारिक रिश्ते गौण । धन, छोटे पर्दे के ऐसे संयुक्त परिवार वास्तविकता और यथार्थ से दूर एक झूठा संसार रच रहे हैं। हो सकता है कि हमारे समाज में संयुक्त परिवार जैसी सामाजिक व्यवस्था कहीं से चरमरा रही है, जबकि संयुक्त परिवार में आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से सभी सदस्य स्वयं को समृद्ध और सहज अनुभव करते हैं। सुख-दुख किसी एक का नहीं, सबका होता है और वे आपसी सौहार्द के साथ साझा करते हैं। परिवार का मुखिया समभाव रखता है और हरेक की जरूरतों को पूरा करता है। समय के साथ संयुक्त परिवारों की संख्या कम और एकल परिवारों की तादाद बढ़ती जा रही है। परिवार जनों की निजी महत्त्वाकांक्षाएं, आर्थिक रूप से मजबूत बनने की अभिलाषा, बच्चों का भविष्य बनाने की चिंता, आपसी टकराहट, स्वतंत्र रहने की भावना, रोजगार के लिए अन्यत्र रहने की विवशता समेत और भी कई कारक संयुक्त परिवार छोड़कर एकल परिवार के लिए अहम भूमिका निभा रहे हैं।
संयुक्त परिवार से अलग होने का मतलब परिवार से अलगाव नहीं होता। अलग-अलग रहते हुए परिवार से उनका गहरा रागात्मक जुड़ाव बना रहता है। इसीलिए राजस्थानी में एक कहावत प्रचलित है- जितने बेटे उतने घर । घर अलग-अलग होते हुए भी कुटुंब एक ही है, संयुक्त परिवार जैसा । छोटे पर्दे पर दिखाए जाने वाले संयुक्त परिवार हमारे परपंरागत भारतीय संयुक्त परिवारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते । भारतीय संयुक्त परिवारों में अपनत्व, आत्मीयता, समरसता, रागात्मकता और एक- दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण भाव की प्रधानता रहती है। रिश्तों को जीया जाता है, दिखावा नहीं किया जाता । सामान्य तकरार और रूठने-मनाने की स्वस्थ परंपरा के बीच आर्थिक आधार पर किसी सदस्य को महत्त्वपूर्ण या महत्त्वहीन मानने की मनोवृत्ति आमतौर पर नहीं होती।
ऐसे संयुक्त परिवार आज भी मिल जाएंगे, जिनमें एक छत के नीचे प्रेम से चालीस-पचास परिजन रहते हैं, एक रसोई में खाना बनता है और सब हिलमिल कर भोजन करते हैं। अलग-अलग व्यवसाय और काम-धंधा होते हुए भी मुखिया के आदेशों की पालना होती है। टीवी के कार्यक्रमों के परिवारों में ऐसा सुखद माहौल कहां दिखता है ? भरे-पूरे परिवार में बमुश्किल एक - दो महिला सदस्य ही परिवार को एकसूत्र में बांधे रखने की कोशिश में दिखती हैं, वे भी हताश - निराश। इन कार्यक्रमों में अभिजात्य वर्ग की सुशिक्षित- अत्याधुनिक महिलाएं और पुरुष कूटनीतिक चालें चलने और परिवार के अन्य सदस्यों को शिकस्त देने में लगे दिखते हैं। ऐसे परिवार और ऐसे महिला- पुरुष किरदार भारतीय समाज के नहीं हो सकते। जबकि शहरों- कस्बों में ही नहीं, नगरों और महानगरों में आज भी ऐसे संयुक्त परिवार हैं, जहां रिश्तों की सोंधी महक लुभाती है । एकजुटता और इंसानियत का संदेश देती है । झोपड़पट्टियों में रहने को विवश दो वक्त का खाना जुटाने की जुगाड़ में लगे परिवार के सदस्य भी षड्यंत्रों से दूर रिश्तों के रेशमी धागे से बंधे हुए दिखते हैं।
भारतीय संस्कारों को आत्मसात किए हमारे समाज का संयुक्त परिवार हो या एकल परिवार, उनमें जुड़ाव है, बिखराव नहीं । उनके संवेदनशील रिश्तों की नदी सूखी नहीं है, वह अनवरत - अबाध बह रही है। छोटे पर्दे के परिवारों की कहानियां हमारे सोच और संस्कारों दूर, पता नहीं विश्व के किस छोर की कहानियां हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार गली कोर चंद वाली मंडी हरजी राम वाली मलोट पंजाब
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 







 
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                     
                                             
                                             
                                             
                                             
                                            