नए नजरिए की जरूरत
नए नजरिए की जरूरत
विजय गर्ग
अगर महिलाओं के दुख-सुख और उसकी व्यवस्था पर केंद्रित बातचीत हो रही हो तो उसके बीच में किसी के मुंह से अक्सर यह सुना जा सकता है कि एक औरत ही औरत की दुश्मन होती है। जो इस मसले की तहों से दूर रहते हैं, वे सहमत होते हैं, जो इसकी परतों को समझते हैं, उनके लिए इससे सहमत होना मुश्किल होता है।
दरअसल, एक स्त्री जो पाती है, वही ज्ञान संस्कार अपनी बेटी, बहू या अन्य लड़कियों को देती है। आज के दौर में जब आमतौर पर हर लड़की और महिला को अपने हाथ में बसे इंटरनेट के माध्यम से घर, बाहर और संसार की सारी खबरें मिल रही हैं, ऐसे में अगर कोई महिला यह कहती है कि मुझे आजकल की लड़कियों से डर लगने लगा है, तो हैरानी होती है। अपने बेटे के लिए पुत्रवधू खोजते हुए क परिचित ने कहा कि आजकल की लड़कियों से जरा डर लगता है... आजकल की लड़कियां बहुत चालाक होती हैं... वे लड़के से सारा पैसा लेकर अपने पास रखती हैं।
इस तरह की बातें सुन कर एकबारगी ऐसा लगता है कि उन्हें किसी एकाध खास लड़की से कोई नाराजगी होगी, इसलिए वे ऐसा कह रही हैं, मगर विडंबना यह है कि यह राय उनकी सोच से जुड़ी थी। क्या वास्तव में आज के दौर की एक पढ़ी-लिखी जिम्मेदार महिला को थोड़ी-सी प्राप्त आजादी से सपने देखने वाली लड़कियों के बारे में ऐसी सोच रखना ठीक है? इस तरह की बातें जब पुरुषों के मुंह से निकले तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब भी किसी की सत्ता में कोई घुसपैठ करता है तो उसे कष्ट होता है।
मगर जब एक पढ़ी-लिखी स्त्री बार- बार ऐसे विचारों को दोहराती तो इस पर सोचने की जरूरत महसूस होती है। महादेवी वर्मा इस बात पर बल देती हैं कि एक पढ़ी-लिखी महिला को हमेशा अपनी अनपढ़ बहनों का साथ देना चाहिए, ताकि अन्य महिलाएं भी आगे बढ़ सकें। अगर सावित्रीबाई फुले ने भी यही सोचा होता तो क्या आधी आबादी जो आज पढ़-लिखकर अपने घरों से निकल पा रही है, निकल पाती ? शायद नहीं । दरअसल, हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर ध्यान से देखा जाए तो एक पहलू अगर आज के दौर में लड़कियों का घर से बाहर निकलने का संघर्ष है, तो दूसरा पहलू उन स्त्रियों की सोच का है जो यह माने बैठी हैं कि स्त्रियों के घर से बाहर निकलने की आजादी ने गृहस्थ जीवन को बर्बाद कर दिया है।
इसे कुछ यों भी देख सकते हैं कि वे स्त्रियां जो घर के बाहर काम कर रही है, वे घर में काम करने वाली स्त्रियों के सामने चुनौती हैं। हमने बचपन से सुन रखा है कि एक उम्र के बाद लड़कियों को घर संभालने का काम सीख लेना चाहिए, क्योंकि लड़कियों को दूसरे के घर जाना है । आजादी के पचहत्तर साल बाद भी हमारा समाज इस सोच से मुक्त नहीं हुआ है। आज भी हम लड़कों की जगह तुलना में लड़कियों को घर का काम सिखाने में ज्यादा ध्यान देते हैं । परिणामस्वरूप कामकाजी महिलाएं घर और बाहर, दोनों को संभालने की पूरी कोशिश करती हैं, ताकि उनके ऊपर यह इल्जाम न आए कि नौकरी कर रही हैं, तो घर को छोड़ दिया है।
एक बड़ी समस्या स्त्रियों के लिए सोशल मीडिया भी है। सोशल मीडिया महिलाओं को सर्वगुण संपन्न नारी की छवि से मुक्त नहीं होने दे रहा है। ऐसे में पुरुष प्रधान समाज को अगर आसानी से सर्वगुण संपन्नता के रोग से ग्रस्त आधी आबादी मिल जाए तो किसका दोष है। जब स्थितियों की इतनी मांग हो तो ऐसे में स्त्रियों को स्वयं को साबित करने के लिए ज्यादा परिश्रम करना पड़ता है। ऐसे में तुर्रा यह कि इतना करने के बाद भी यह सुनना पड़ता है कि आजकल की लड़कियां ज्यादा चालाक हो गई हैं... भोले-भाले लड़कों को फंसा लेती हैं।
कई दफा तो ऐसा लगता है कि जो माताएं अपने पुत्रों से अतिरिक्त प्रेम करती हैं और उन्हें अपने और अपने लड़कों के भोलेपन पर इतना नाज है, उन्हें एहतियातन बच्चों को विवाह के लिए ही मना कर देना चाहिए। खुद जब रोटी - दाल पकाने लगेंगे तो औरतों की दोहरे दबाव में घिरी जिंदगी का दर्द समझ में आ जाएगा। एक समस्या और भी है। आज के समय की स्त्रियां दो स्तर पर कार्य कर रही हैं। एक कि वे स्वयं को साबित करने में लगी हैं, दूसरी कि वे अपनी आजादी को भी जीना चाहती हैं। इन दोनों दबावों से निजी जिंदगी में विरोधाभास पैदा होना स्वभाविक ही है ।
यह विरोधाभास और भी प्रबल तब हो जाता है जब आज के समय में सबको पढ़ी-लिखी आधुनिक बहू और पत्नी तो चाहिए, मगर वह उसकी आजादी को एक सीमा में ही बांध कर रखना चाहता है । ऐसे में अक्सर लोग मुट्ठी भर स्त्रियों का उदाहरण प्रस्तुत करके हर महिला की आजादी को एक ही पैमाने पर तौल देते हैं। समस्या यह है कि जब यहां एक घर से दूसरे घर में आजादी के मायने बदल जाते हैं तो इतने सारे सामाजिक वर्गीकरण में सभी महिलाओं की आजादी को हम एक ही चश्मे से कैसे देख सकते हैं! ऐसे में आज पुरानी पीढ़ी की महिलाओं को अपने घर की नई पीढ़ी की महिलाओं के लिए नए नजरिए की जरूरत है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट