मैं निरुत्तर था
मैं निरुत्तर था
हम रोज सजधज कर बाहर जाते हैं यह हमारा नित - नियम भी है लेकिन हमारा अपने अन्दर की सजावट की और कभी ध्यान जाता हैं ?
एक घटना प्रसंग किसी व्यक्ति का सत्संग में जाने का रोज का नियम था । रोज की तरह वह एक दिन सज - धज कर तैयार होकर सत्संग में पहुँच गया । इसी तरह अन्य लोग भी सत्संग में पहुँच गये । तभी पंडित जी ने उस व्यक्ति से तथा उस जैसे सभी व्यक्तियों से सत्संग में ही एक प्रश्न कर दिया कि अपना तन और चेहरा तो खूब सजाते हो जो औरों को दिखाते हो मगर अंतर्मन को सजाने की आपके द्वारा कितनी कोशिश की जाती है जिससे आत्मा की शुद्धि होती है।
यह सुन वह व्यक्ति ही नहीं उस जैसे सभी व्यक्ति सुनकर निरुत्तर थे जो ऐसे प्रश्न की आशा ही नहीं करते थे। सच में पंडितजी के इस प्रश्न ने सबको झकझोर कर रख दिया । आंतरिक सौंदर्य का आधार नैतिक मूल्यों पर आस्था, मानवीय गुण ही है, उनका विकास होने से सौंदर्य भी निखर जायेगा ।सुंदरता की परिभाषा क्या है यह देखने वाले व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वो क्या देख रहा है ।
आजकल सुंदरता का माप दंड इंसान का रंग रूप और उसके पहनावे को ज़्यादा महत्व देने लगे हैं । जवानी की सुंदरता बुढ़ापे में समाप्त हो जायेगी । वह कपड़े की सुंदरता उसके पुराने होने के साथ समाप्त और कोई कोई सामान की सुंदरता उसके टूटने के साथ समाप्त। व्यक्ति की असली सुंदरता होती है उसके स्वयं के सदगुण।इंसान के मन में अगर सच्चाई,मधुर वाणी,हृदय से उदारता,मन की सरलता और छल कपट आदि से कोसों दूर ।अगर व्यक्ति में ये सदगुण हैं तो शरीर की और बाहरी सुंदरता का कोई मायने नहीं होता।
कस्तूरी काली होती है पर उसके गुण के कारण उसकी डिमांड ज़्यादा होती है।रोहीड़े का फूल बहुत सुंदर होता है पर उसके अंदर ख़ुशबू नहीं होती इसलिए उसे कोई हाथ भी नहीं लगाता। इसलिये व्यक्ति की असली सुंदरता उसका रूप-रंग नहीं अपितु उसके सदगुण ही असली सुंदरता होती है । प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़ )