विडम्बनाएँ
विडम्बनाएँ
हम अक्सर विरोधाभासी भावनाओं के द्वंद से जुझते हैं।हमें समझ में नहीं आता कि हम चाहते क्या हैं। हमारे जीवन में हम अनेक जगह विडम्बनाएँ देख सकतै है जैसे पारिवारिक माहौल में तो विडम्बना की पराकाष्ठा तब हो जाती है मॉं-तात जब आदि समयानुसार फ़्रेम मे मंढ दिए जाते हैं और रोज ताजा फूलों की माला चढ़ा कर पूजे जाते हैं पर मौजूद मॉं-बाप के साथ क्या हम व्यवहार करते हैं ।
हम कहते हैं हमारी राजकीय भाषा हिंदी होने चाहिए पर खुद बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने के लिए तत्पर रहते हैं और इसी में अपनी शान समझते हैं । कहते हैं विदेशी सामान का बहिष्कार करो पर खुद घरों में विदेशी सामानों को सजाते हैं। कई लोग अकेले हैं उन्हें प्यार करने वाला कोई नहीं होता और किन्हें अपनों के होते हुए भी अपनापन नहीं मिलता। ठंड में ठिठुरते हैं कई लोग ,घर नहीं होता ,पर खुश रहते हैं ।कोई बंगले की चारदीवारी में भी खुश नहीं होता। छाया सबको चाहिए पर वृक्ष का कोई ध्यान रखना नहीं चाहता ।
आचार्य श्री तुलसी के द्वारा लिखा गया धर्म नाम से शोषण करते,धर्म नाम से निज घर भरते ,धर्म नाम से लड़ते-भिड़ते, कैसा धर्म बना बेचारा बात सही है। आज की पीढ़ी दिग्भ्रमित हो रही है कि सच क्या है। ऐसे बहुत उदाहरण हैं ये सब विडम्बनाएँ अगर हम सब समझ जाएँ तो दुनिया का नक़्शा ही बदल जाए। प्रदीप छाजेड़