कौनसी मजबूरी है
कौनसी मजबूरी है
आधुनिकता की अन्धी दौड़ में हम नहीं जानते क्या-क्या न कर रहे हैं ? ऐसा करने में कष्ट भी उठा रहे हैं फिर भी नहीं डर रहे हैं। क्यों देखा - देखी में हम चलते जा रहे है उस पथ पर जिसका कोई अन्त ही नहीं है ।
पश्चिमी राष्ट्रों में साल के अधिकांश समय में अच्छी ठण्ड रहती है इसलिए सूट पहनना उनके लिए एक आवश्यकता है , पर यहॉं भारत में पसीना निकालती भर गर्मी में, उनकी देखा - देखी नक़ल कर सूट पहनना और कष्ट पाना कौनसी आवश्यकता है ? यह निरा अन्धानुकरण नहीं तो और क्या है कौनसी आवश्यकता है ? ठीक इसी तरह खाने का या और कोई हम उदाहरण देख सकते है ।
हर कोई वैभव-विलास का सुखद जीवन जीना चाहता है । चाहे उसके लिए जीवन का वास्तविक सुकून चला जाये, अपनों से रिश्ते बिगड़ जायें ,सेहत कमजोर हो जाये और सबसे महत्वपूर्ण अनमोल मानव जन्म का अमूल्य समय ही खो जाये ।दिलोदिमाग़ पर भौतिकता की धुँध छायी हैं जो उस पर पड़ी आधुनिकता के अंधानुकरण की परछाई हैं। ऐसे में हमारे चरित्र की प्रगति का साधन,आत्माशुद्धि का सहचर धर्म तलहटी में कहीं दब गया है ।
हम इस कदर जगत की जगमगाहट में रम गए हैं कि आध्यात्म के प्रकाश का शमन हो रहा है , हमारे ही हाथों हमारे उन्नयन स्रोत का दमन हो रहा है । निद्रा से ससमय स्वत: को जगाना होगा । मूल बात है जो चिन्तन मॉंगते हैं कि हम अविवेक से अन्धानुकरण न करें हर काम विवेकपूर्वक करें। प्रदीप छाजेड़