भक्ति - सेवा
भक्ति - सेवा
तेरापंथ धर्म संघ में सेवा का महत्वपूर्ण स्थान है । सेवा का कार्य महान अविस्मरणीय होता है । तेरापंथ धर्म संघ में साधुचर्या में कहते है कि साधु ने 3 चाकरी कर ली तो वह सेवा के ऋण से उऋण हो गया । सेवा सिर्फ ध्यान रखने मात्र ही नहीं है बल्कि सामने वाले को हर तरीके से चित में समाधि देना भी होता है ।
जब साधुचर्या में सेवा का इतना महत्व है तो हमारे गृहस्थ जीवन में भी सेवा का बहुत महत्त्व हैं । जैसे माँ - बाप की सेवा , रुग्ण की सेवा आदि - आदि । इस तरह सेवा का सब जगह बहुत उच्च स्थान दिया हैं । भक्ति का एक प्रसंग बचपन में जब धार्मिक पाठशाला जाते थे संगीत क्लास जाते थे तो गुरुजी जी सिखाते थे वह सीख लेते ,लगन से ,बिना कोई अर्थ ,जाने भाव जाने ,बस यही कहते थे की भगवान की भक्ति में लीन रहो। याद आती हैं वो लाइने भक्ति करता छूटे मारा प्राण प्रभु एवु मांगु छूँ, रहे हृदय कमल माँ तारूँ ध्यान प्रभु एवु मांगु छूँ।
इसलिए हृदय आज भी पवित्रता की गवाही देता हैं कि जिसने राग-द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया ।सब जीवों को मोक्ष - मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया, बुद्ध, वीर जिन, हरि, हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो। अब तर्क चला कि हम रोज - रोज भगवद् भक्ति में ही क्यों लगे रहें ?मासिक या साप्ताहिक आराधना ही क्यों न करें ? हो सकता हैं तर्क सही हो पर जैसे एक माँ के सामने बच्चा अपनी बात रोज़ मनवाता हैं ज़िद करता हैं कुछ ऐसे भी भावों से हमें भक्ति करनी चाहिए यह नियमित एवं सही समय पर करना सार्थक हैं ।
क्या खोया- क्या पाया सब अपने बनाए कर्म के कारण है , अरे न रुकी वक़्त की गर्दिश और न ज़माना बदला ।पेड़ सूखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला । अब दोष भगवान को क्यों ।हम ही हमारे दोषी हैं ।धरती तो वज्रदिल बन सब कुछ सहती है एक माँ की तरह , सरिता उतार चढ़ाव में भी अविरल बहती है एक माँ की तरह और हम नादान बच्चे अपनी नादानी के कारण दुःख के कगार तक पहुँच जाते है जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ हताशा है निराशा है दोषारोपण हैं ।
आख़िर होगा हमारा जाना तो कोई साथ नहीं निभाएगा, हमारे कर्मों का फल हमारे साथ जाएगा , चिंतन कर ले इन बातों का तो हमारा जन्म सफल हो जाएगा । प्रदीप छाजेड़