आनन्द का द्वार
आनन्द का द्वार
आज के समय में कहते है कि पैसा है तो आनन्द ही आनन्द है । धन दौलत और वैभव से ही सुख शांति मिलती तो पैसे वाले लोग नींद की गोली लेकर नहीं सोते।उबली हुयि सब्ज़ी नहीं खाते।हर समय डर के माहौल में नहीं जीते।जीवन का असली आनंद है फ़क़ीरी में।जो मिला उसी में संतोष हैं ।
जीवन में पैसा बहुत कुछ है पर सब कुछ नहीं हैं । जीवन में सही आनंद तभी मिलेगा जब मन में हो शांति और संतोष और कुछ समय अपने में व व्यतीत करो सामाजिक कार्यों में। मैं भीतर गया मैं भी तर गया यह भीतर जाने का रास्ता तरने का रास्ता है इस भव सागर से। गुरुदेव तुलसी ने श्रावक संबोध के दूसरे भाग की शुरुआत यही से की है जो हमारे तत्वज्ञान के 25 थोकड़ों के प्रारम्भिकज्ञान से शुरू होती है ।
मैं कौन हूँ ,कहां से आया हूँ,क्या गति ,जाति क्या मेरी पहचाण है । भीतर आत्मा का शुद्ध स्वरूप विद्यमान है ,हम भव भवान्तर से इसकी खोज में सतत प्रयत्नशील रहे होंगे और अब भी होंगे लेकिन अभी तक वो अनमोल रत्न हाथ नहीं लगा क्योंकि हमारी सच्ची लगन अभी इसमें नहीं जुड़ी है लेकिन जुड़ने की अपेक्षा है,ये अनमोल भव मिनख जमारो पायो है तो इसका अनमोल सार निकालकर अपना भव सुधारकर तीसरे भव को पक्का सीमित कर लें और इस ओर सतत प्रयास जारी रहें।
हमारे मनोबल मजबूत हो तो सब कुछ सम्भव है ।मन के हारे हार है ,मन के जीते जीत ये हम सब जानते हैं बस जरूरत है तो इसे किर्यान्वित करने की तो शुरुआत आज से हीनहीं ,प्रथम कदम अभी इसी पल से शुरू हो जाएं। मन का संतुलन तभी संभव है जब वह अस्थिरता से हटकर स्थिर रहते हुए स्व में रमण करने लगता है । उचित साधना से यह निश्चित ही संभव होगा। यदि साधना में गफलत होगी तो असंभव ही लगेगा और आनंद का द्वार वह दूर ही रहेगा। प्रदीप छाजेड़