सोच का दोहरापन
सोच का दोहरापन
स्वार्थ जहाँ हावी हो जायेगा वहाँ मानव की सोच विवेक शून्य हो जायेगी । सोच विवेक शून्य हुई वहाँ चिन्तन में सही स्फुरणा का अभाव आ जाता है और सोच का दोहरापन आ जाता है ।
यही मानव की कथनी - करनी की असमानता समाज परिवार आदि के विघटन और बिखराव का कारण बन जाती है । भोजन और विचारों का आपस मे प्रभावित होने का, सदा से ही गहरा और अटूट सा नाता है ।देश,परिवेश,संस्कृति, शिक्षा की परछाई के प्रभाव से भी कोई -कोई बिरला ही बच पाता है ।
कथनी और करनी के बीच की खाई आज इतनी चोङी हो गायी है की उसको पाटना मुश्किल सा हो गया है ।क्योंकि किसी आदर्श,उपदेश, निर्देश का तीर किसी के अन्तरस्थल को गहराई तक छू ही नहीं पाता है ।चिंता स्वाभाविक है, क्योंकि हमारी दोङ उस दिशा मे हो रही है जिसका रास्ता आगे से बंद है।
दीये तो बहुत से जल रहें हैं पर उनकी रोशनी कम,धुएँ का साम्राज्य बुलन्द है । दोहरी मानसिकता बहुत खतरनाक होती है अपने लिए भी और दूसरे के लिए भी ।जहां कथनी और करनी एक ना हो ,प्रमाणिकता न हो अपने ही प्रति ,तो दूसरे को कहना या दूसरे से अपेक्षा रखना कहाँ तक उचित है?
ऐसी दोहरी मानसिकता के चलते कहींकोई उत्थान की कल्पना करना भी असम्भव है।पहले हमसब स्वयं उसकी अनुपालना करें और फिर दूसरे को कहें तो हमारी कही बात कीकोई सार्थकता होगी।आपके कहे की सार्थकता तब है,जब आप अपने ऊपर उन सब बातों को अपनाते हों,फिर कहते हो।इसलिये हम अपने पर स्वार्थ की सोच का प्रभाव नहीं होने दे। प्रदीप छाजेड (बोरावड )