चिंता बनाम चिन्तन
चिंता बनाम चिन्तन
आधुनिक जीवन के तेज रफ्तार भरी जिंदगी में प्रतिस्पर्धा और - और में संपन्नता भरा जीवन जीने की चाह आदि इन बढ़ती इच्छाओं की वजह से मनुष्य चिंता ग्रस्त होने लगता है ।वह जो चाहता है उसे प्राप्त नहीं होता तो वह चिंतित होने लगता है और कई मनोरोग और शारीरिक परेशानियों से घिर जाता है।
कहते हैं चिता मानव को मृत होने के बाद जलाती है पर चिंता मनुष्य को जीवित रहने तक जलाती रहती है। जबकि चिंतन स्वस्थ जीवन देता है । सकारात्मक सोच व चिंतन से जीवन में आगे बढ़ सकते हैं । किसी भी परेशानी को लेकर चिंता करने के बजाए उसके हल करने के बारे में सोचना ही चिंतन है ।चिंतन से बुद्धि का विकास होता है ।चिंतन के द्वारा हम बड़ी से बड़ी परेशानियों के बीच छुपे हुए अवसर और अच्छाई को देख सकते हैं।चिंता नहीं-चिंतन करो ,व्यथा नहीं-व्यवस्था करों क्योंकि कोई भी समस्या के समाधान के लिए अपेक्षित है।
हम चिंतन करके समस्या का समाधान निकालने की जरूरत होती है,चिंता तो और ज्यादा समस्या को बढ़ाती है।व्यर्थ में व्यथा और चिंता हमें नकारात्मक बनाती है,चिंतन हमें सकारात्मकता प्रदान करवाता है तो हम हमेशा चिंतन और व्यवस्था करें ,जरूर कामयाब होंगे मंजिल पाने में,चाहे कोरोना हो या कोई और परिस्थिति ,जीत हमारी होगी निश्चित ही । चिंताओं के घेरे में जीवन बह रहा है ।
व्यर्थ के तनावों में जन-मन घिरा हैं ।समता और सन्तुष्टि जैसे शब्द अब जीवन से पराये हो गए हैं ,फलत: सुकून और शान्ति भी अब दूर कहीं खो गए हैं । ऐसे में आध्यात्म का ही सहारा है क्योंकि इसमें असीम सुख का आसरा छिपा है । प्राप्त में पर्याप्त हमें मानना है । इस सूत्र में समाया अनमोल सुख का ख़ज़ाना हैं ,यह जानना है ।
सम-विषम परिस्थिति में समता को हमे धारना है , मनोविकृतियों को चुन-चुन के मारना है । नन्ही सी ज़िन्दगी के एक-एक पल को सुकर्मों से सजाना है , धर्म के मर्म को समझ- खुशियों को जीवन में भरना है । क्षण-क्षण को आह्लाद से भरते जाना हैं ।तभी तो कहा है कि जीना सार्थक उसी का है जिसके जीवन का हर पल परमार्थमय ख़ुशी का होता है। प्रदीप छाजेड़