न इतराओ इतना बुलंदियों को छूकर
न इतराओ इतना बुलंदियों को छूकर
नो हिणे नो अइरीत्ते है यह आगम वाणी। सफलता पर कभी भी न फुलें और न साथ में अहंकार के भाव लाएं। इसके विपरीत असफलता पर हीन भाव से ग्रसित भी न बन जाएं। हम समत्त्व भाव विकसायें ।
सफलता तब ही सफल कहलाती है जब वह साथ में विनम्रता बढ़ाती हैं । कुछ हासिल किया और अहंकार न आये तब बहुत बड़ा आश्चर्य कहलाता हैं । अहंकार में सफलता आगे से आगे फिसलती चली जाती है । भाग्य ने साथ दिया तो शायद एकाध बार आगे बढ़े और अहंकार से सफलता पा भी जाए पर निरंतरता सफलता कि कभी भी साथ में नहीं रह पाती हैं ।
अहंकार ढंका हुआ ऐसा कुंआ हैं जो पता ही नहीं चलता कब वह लुढ़क जाएं। विनम्र सरल व्यक्ति ही दिन प्रति दिन निरन्तर सफलता पा सकता है और आगे बढ़ता जाता है और अपना लक्ष्य हासिल कर लेता हैं । हमारे विवेक से हम ये समझते हुए की हर गहन अंधेरी अमावस्या आती हैतो पूर्णिमा की चांदनी बिखेरती रात भी आती है और रात के बाद सुबह और हर कर्म एक निश्चित समय के बाद उदय में आता ही है ।
स्थितियाँ बदलते देर नही लगती है अरे ! कल तक शीशा था सब देख-देख कर जाते थे आज टूट गया,सब बच-बच कर जाते हैं । ठीक इसी तरह समय के साथ में सब बदल जाता हैं देखने और इस्तेमाल का नज़रिया भी ।अहं व्यक्ति को अर्श से फ़र्श पर ला पटकता हैं। इसलिए बुलंदियों को छूकर इतराने का गुमान और छोटा होने का मलाल बेकार है।
पूरी दुनिया हम जीत सकते है संस्कार से और जीता हुआ भी हार जाते है अहंकार से ।इस अहं का दमन बेहद ज़रूरी हैं । हम देखते है रावण बाणासुर गया और गयी सिकंदर की शान । राजा-महाराजाओं के महल जहॉं कभी होते थे उनके वहॉं अभी खंडहर पड़े हुए हम देख रहे हैं। प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)