मुमुक्षा

चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम होने के बाद ही मुमुक्षा में आत्मा केन्द्रित हो जाती हैं। वह पाँच महाव्रत को धारण करने को उत्सुक होते हैं । ( मुमुक्षा=मोक्ष पाने की तीव्र इच्छा ) उनकी आत्मा तो परम सौभाग्यशाली होती है। हम आज के समय में देखते है कि इच्छाएँ, कामनाएँ तो मनुष्य की जन्मजात से ही भावनाएँ हैं । वह मनुष्य बचपन से ही इच्छाओं में ही जीता है।
उसकी अंतहीन इच्छाओं का चक्र भी खत्म ही नहीं होता है।उसकी नई-नई चीजों की लालसा थमने का नाम ही नहीं लेती है। वह मानसिकता असीम धन-दौलत, आलीशान मकान, आयातित लग्जरी वाहन आदि देने में कुछ भी कृपणता न करें भगवान आदि में रहती है । ऐसे सांसारिक माहौल में भी दीक्षा के लिए उन्मुक्त होना सचमुच परम सौभाग्यशाली व श्रेष्ठ महान आत्मा के व्यक्तित्व का परिचायक होता हैं । उनके संसार से निर्लिप्तता, निर्मोहता आदि के परम उत्कृष्ट भाव होतें हैं । हम अपने जीवन में जब तक दुसरो की अपेक्षाओं पर निर्भर है तब तक हमारे जीवन का स्वभाव अभाव ही रहता है । वह जिस दिन से हम स्वयं से अपेक्षा करेंगे वह पल हमारा आत्म स्वभाव का होगा और हमारे कोई भाव या अभाव नहीं होगा । हमारा एक ही ध्येय होगा कि बस आत्मा कि उज्जवलता मिलती रहे । वह जिसके अंतिम परिणाम मोक्ष से हम कोई भी अनभिज्ञ नहीं हैं ।
भगवान महावीर के भवो की यही दास्ता है । उनके भाव अभावो से जीवन गाथा शुरु होती हैं । वह स्वयं में रम जाने से सिद्धार्थ कुल के उजियार वर्धमान थे जो आगे चल भगवान महावीर बन गए क्योकि उन्होंने स्वयं को स्वयं से जीता है।मुमुक्षा की स्तिथि में मन की समस्त उर्जा इस एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाती है। वह उसका जीवन तो धन्य हो जाता है। यह ऐसा तभी होता है जब महान पुण्य कर्मों का उदय होता है। प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़ )