कहानी। "बहू रानी" डॉ. सतीश "बब्बा"

कहानी। "बहू रानी" डॉ. सतीश "बब्बा"
कुछ कहावतें गांव में कही जाती हैं, वह अनुभवी बुजुर्गों के शोध से बनाई गई लगती हैं, लगती हैं नहीं, वह तो हैं ही! एक कहावत कही जाती है, 'घर की मुर्गी दाल बराबर!' 'दूसरे की पतरी का बरा ज्यादा अच्छा होता है!' लखन की बहू जतरी साधारण सी दिखने वाली लड़की थी। हां साज - श्रृंगार में वह किसी से भी कम नहीं लगती थी। यद्यपि जतरी लखन की सबसे छोटी बहू थी। उससे तीन बड़ी बहुएं थीं। बीच की दो बहुएं सगी बहनें थीं। लखन के लिए सभी बराबर थीं। लखन की पत्नी सुनंदा के मरते ही लखन का सिंकंजा घर से छूट गया था। कहते हैं पति कितना भी कमाऊ हो, पत्नी गृहस्थी में नहीं है तो वह घर - गृहस्थी नहीं के बराबर होती है। सुनंदा की असमय मृत्यु से लखन टूटकर बिखर गया था। लखन की कम आमदनी में सुनंदा ने ऐसी गृहस्थी सजाई थी; जिसकी प्रशंसा नात - रिश्तेदार करते थे, पूरा गांव करता था। सुनंदा की गृहस्थी में सभी वह चीज थी जो गृहस्थी में होनी चाहिए थी।
सुनंदा की मृत्यु के बाद लखन ने यह संकल्प लिया था कि, वह न तो किसी से कुछ मांगेगा, न ही किसी को कुछ देगा। लखन की छोटी बहू जतरी देख रही थी कि, उसकी जेठानियों का डेरा उनके अपने मायके में ही रहता है। ससुर लखन से कोई मतलब नहीं है कि, सुनंदा की बनाई गृहस्थी का सामान कैसे, कहां जा रहा है। जतरी आती - जाती रही थी। रवन - थवन की रस्में पूरी हो गईं थीं। जतरी ने देखा उसकी जेठानियां मेहमान की तरह अपने घर ससुराल आती हैं; बांकी अपने - अपने मायके में ही रहती हैं। जतरी की मम्मी भी जतरी को बार-बार बुला रही थी; उसकी जेठानियों की तरह! जतरी ने देखा, सास की बनाई गृहस्थी अब बिखरने लगी है। ससुर को क्या दोष, वह तो असमय विधुर होकर पागल नहीं हुआ है, यह क्या कम है? लखन पूरी तरह से साधु-संत सा जीवन जी रहा है। सबकुछ अभी उसी की कमाई का है; सुनंदा का बनाया हुआ स्वर्ग से सुन्दर घर! सबको ठोकर मारकर जो खाने को मिल गया खा लिया, भूखा-प्यासा रहा आएगा; किसी से कुछ मांग नहीं सकता है। नुकसान - फायदा से भी कोई लेना - देना नहीं है। जतरी ने देखा, जेठानियां बड़ी सुंदर हैं। उनके पति परदेश चले जाते हैं, वह मायके में रही आती हैं।
लखन ज्यादातर बाहर निकल जाता है। घर भी आता है तो एक अलग कमरे में रहता है, वहीं खाना जो मिल जाता है, खा लेता है, बिना शिकवा - शिकायत के! जतरी को मात्र दस दिन हुए थे ससुराल से मायके आए हुए! जतरी ने अपने पति को फोन लगाकर कहा, "आप चाहे जहां रहें, मैं अपने घर में रहूंगी, पापा को खाना दूंगी, अपनी गृहस्थी देखूंगी। आप तुरंत आइए मुझे लेने; वरना मैं खुद चली आऊंगी!" उसके आदमी ने देरी नहीं की, तुरंत जतरी के मायके पहुंच गया। दामाद को अचानक आया देखकर जतरी की मम्मी ने पूछा, "अचानक कैसे भुला गए आप, दामाद जी; सब ठीक तो है न!" जतरी के पति ने कहा, "मैं जतरी को लेने आया हूं। कल सुबह ही बिदा कर दीजियेगा!" जतरी की मम्मी ने कहा, "दामाद जी, ऐसी क्या जल्दी है, आपकी भाभियां तो साल में कभी एकाध बार, दस दिन के लिए जाती हैं। मेरी जतरी तो अभी आई है, कुछ दिन रह लेने दीजिए!" इसके पहले कि, जतरी का पति कुछ कहता, जतरी ने झट कहा, "मम्मी, इन्हें मैंने बुलाया है। कल हमारे लरिका - बच्चा होइहैं, हमें घर - गृहस्थी बनाना चाहिए कि नहीं? आपका जो काम था, आपने कर दिया। मेरा अपना घर है, मैं अपने घर में ठीक रहूंगी!" जतरी की मम्मी ने समझाते हुए कहा, "जतरी, वहां जाकर क्या करोगी?
सबकुछ साझे में है, अकेले तुम क्यों परेशान हो रही हो, हिस्सा समधी साहब अपने जियत नहीं बांटेंगे!" जतरी तमतमा गई! उसने अपनी मम्मी से दो टूक शब्दों में कहा, "मम्मी ध्यान से सुन लीजिए, मैं बांट कराना नहीं चाहती, अपने दम तक मैं हिस्सा बांट नहीं होने दूंगी, बाबू जी सौ साल जिंदा रहें मैं चाहती हूं, वह तो हमारे देवता हैं न! अगर मम्मी के सोच में उन्हें कुछ हो भी गया, तो भी मैं हिस्सा नहीं बंटने दूंगी!" जतरी की मम्मी ने समझाते हुए कहा, "मैं कौन होती हूं तुम्हारे घर के बारे में कुछ कहने वाली; वो तुम्हारी जेठानियों में ऐसी सोच तो नहीं है, वह तो दो - दो बच्चों की महतारी भी हैं!" जतरी ने कहा, "सभी के कमरे अलग - अलग हैं, ताले लगाकर मायके में रहती हैं। अपने - अपने मायके से लाए सामान को सुरक्षित रखे भी हैं। मेरा भी कमरा है मेरी सास सबको अलग - अलग कमरे दिए थे। मैं भी अपने कमरे में अपने सामान के साथ रहूंगी, मैं इनकी कमाई से अपनी सास की तरह गृहस्थी बनाऊंगी। अपनी सास का जो सामान है सब एक कमरे में रख दूंगी, जब सब कोई आएंगे सास की रसोई में, सास के बर्तनों में खाना बनाएंगे, एकसाथ सब लोग खाना खाया करेंगे!" जतरी का पति रो पड़ा था। उसने अपने आंसू पोंछते हुए कहा, "यही तो मेरी मां चाहती थी। मैं धन्य हो गया जतरी तुझे पाकर! खेत में जो होगा उसे खाएंगे, अपनी - अपनी कमाई रखेंगे; काम पड़ने पर एक दूसरे की मदद करेंगे!" जतरी की मम्मी ने कहा, "वह लोग क्या ऐसा करेंगे?" अब जतरी ने कहा, "उनकी सोच वो जानें! हम अपनी कमाई की बात करते हैं। ए कमाकर लाएंगे मैं अपनी सास सुनंदा की तरह गृहस्थी बनाऊंगी, सजाऊंगी।
हालांकि मेरे ससुर लखन, लखन ही हैं, वह नहीं भी लेंगे तो मैं उनको खर्च दिया करूंगी; मेरी बात वह नहीं टाल सकते हैं, मुझे विश्वास है!" जतरी अपने ससुराल आ गई थी। लखन को समय-समय पर खाना - पानी मिलने लगा था। लखन जतरी को मन ही मन आशीष देता था। कुछ दिन बाद जतरी भी मां बन गई थी। जतरी का बेटा लखन के पास अच्छी बातें सीखने लगा था। समय गतिमान होता है। बहुत दिन बीत गए थे! लखन बूढ़ा हो गया था। अब जतरी की जेठानियों का मायके से पत्ता कट गया था। उनके मायके में भाभियां आ गईं थीं। यहां ससुराल में सबकुछ से संपन्न जतरी बहुत खुश थी। ससुराल में जतरी के जेठ जो पैसे देते थे, उन पैसों में गृहस्थी तो बनी नहीं। जतरी के जेठानियों को वाह - वाह मिला था बस! घर में जतरी ने खाना एक में बनाने का ऐलान किया था। जिससे जेठ - जेठानी को राहत मिली थी। खर्च अपना - अपना होगा यह भी ठीक था। नई गृहस्थी बनाना कठिन था। एक दिन जतरी ने देखा कि, जेठानियों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं, उनको आ कुछ नहीं रहा है। जतरी ने उन्हें देखकर एक बड़ा फैसला लिया था। जतरी ने रात में अपने पति से कहा, "सुबह उठकर मेरी जेठानियों के बच्चों को जहां अपना बेटा पढ़ता है वहां नाम लिखाना है। उनके पढ़ाई का खर्च हम उठाएंगे, मेरे बचत खाते से पैसे निकाल कर उनको ड्रेस भी बनवाना है!
" जतरी के पति ने कहा, "अरे महारानी, मेरा भी सुनोगी या अपनी ही सुनाती रहोगी! तुम्हारे पैसे नहीं निकालेंगे, मेरे काम में मेरे लिए सेठ ने पैसे बढ़ा दिए हैं। वही पैसे जो कल दिया हूं, उनको देना मैं सब कर लूंगा, मेरे भुलक्कड़ आका!" उसने जतरी को अपने अंक में भरकर चूम लिया था। फिर कहा, "बस तुम्हारे इशारे की, तुम्हारे साथ की, तुम्हारे आदेश की जरूरत है, बाकी सब मुझपर छोड़ दिया करो!" दोनों एक-दूसरे को छुपाकर खुशी के आंसू बहा रहे थे। दोनों प्रेम के झूले में झूलते हुए सो गए थे। सुबह चाची जतरी ने सभी बच्चों को नहलाकर तेल काजल लगा रही है, यह देखकर सभी जेठानियां बहुत शर्मिन्दा हो गईं थीं। वह जेठ - जेठानियां जो इतनी देर से जागी थीं, कुछ समझ पातीं कि, जतरी का पति उनको लेकर बाहर निकल गया था। वह भाई - भौजाई पूछ तक नहीं सके थे कि, कहां लिए जा रहे हो! एक ने इशारा किया, "क्या हुआ?" सभी ने कहा, "चुप रहना, लड़कों को जतरी अपने लड़के की तरह मानती है, बुरा मान जाएगी!" जतरी समझ रही थी उस खुसर-पुसर को! जतरी अपने काम में लग गई थी। शाम को सभी बच्चों को जतरी लेकर आ गई थी। क्योंकि जतरी के पति को काम से आने पर देर हो जाती थी। बच्चों को चाची खिला - पिलाकर सुता दिया था। बच्चों के चाचा, जतरी के पति ने थोड़ी देर पढ़ने भी बैठाया था। जतरी का बेटा भी अपने बाप को चाचा ही कहता था। दूसरे दिन खटर - खुटुर सुनकर जतरी जल्दी - जल्दी उठकर देखा तो जेठानियों ने सारे काम संभाल लिए थे; चूल्हा - चौका, बर्तन, झाड़ू - पोंछा आदि! जतरी ने कहा, "दीदी!" वह कुछ आगे कहती, सभी जेठानियों ने कहा, "जाओ अपने बच्चों को तैयार करो, तुम भी नहा लो! सभी जन साथ-साथ कुछ अच्छी सी चीज बनाते हैं, सासू मां की तरह!" जतरी जब लखन को खाना लेकर गई थी, लखन बहुत खुश था। लखन को सब पता चल जाता था कि, घर में क्या चल रहा है! लखन के जासूस उसके पोते सबकुछ बता दिया करते थे। लखन ने जतरी को ढेर सारा आशीर्वाद दिया।
सुनंदा की तस्वीर की ओर देखकर लखन ने कहा, "सुनंदा, तेरी असली बहू रानी है जतरी; इसने तुम्हारे कदमों पर चलना सीख लिया है। तुम्हारे परिवार को एक माला में पिरो दिया है; अब मैं शुकून से तुम्हारे पास आ सकता हूं!" सभी जेठानियां, जेठ जतरी को बहुत आशीषों से नवाजते रहते हैं। पूरा गांव कहता है, 'लखन, सुनंदा की बहू रानी जतरी गांव भर में नंबर एक है!'