सालों से जमे अधिकारी मार रहे मलाई

सालों से जमे अधिकारी मार रहे मलाई
■ राम प्रसाद माथुर
भारतीय लोकतंत्र का प्रशासनिक ढांचा संविधान की नींव पर खड़ा है, जिसमें नौकरशाही की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह तंत्र जनता की सेवा हेतु बनाया गया था, लेकिन समय के साथ यह सेवा भाव सत्ता और लाभ का माध्यम बन गया। अनेक सरकारी विभागों में वर्षों से जमे अधिकारी मलाईदार पदों पर काबिज होकर व्यवस्था को पंगु बना रहे हैं। यह समस्या केवल भ्रष्टाचार तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे शासन की गति, पारदर्शिता और जवाबदेही पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
--- ### **वर्षों तक जमे रहने की प्रवृत्ति: कारण और प्रभाव** **1. सत्ता का संरक्षण:** अनेक अधिकारी जो राजनीतिक आकाओं से निकटता रखते हैं, वे मलाईदार पदों पर वर्षों तक बने रहते हैं। इनका स्थानांतरण भी केवल कागजों पर होता है। जब सत्ता और नौकरशाही के बीच नापाक गठजोड़ बन जाता है, तब जनहित गौण हो जाता है और निजी हित सर्वोपरि हो जाते हैं।
**2. तैनाती में पारदर्शिता की कमी:** भले ही सेवा नियम स्थानांतरण की एक अवधि तय करते हों, परंतु इन नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता है। एक ही जिले या मंत्रालय में वर्षों तक टिके रहना कहीं न कहीं यह दर्शाता है कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव है।
**3. भ्रष्टाचार का पोषण:** जहां अधिकारी लंबे समय तक एक ही जगह जमे रहते हैं, वहां भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हो जाती हैं। नेटवर्क इतना मजबूत हो जाता है कि किसी नए अधिकारी के लिए वहां कार्य करना चुनौतीपूर्ण बन जाता है।
**4. नवाचार और कार्यक्षमता पर असर:** जब एक ही व्यक्ति वर्षों तक किसी पद पर बना रहता है, तो वह अपने अनुभव के साथ-साथ एक स्थायीत्व की भावना जरूर लाता है, लेकिन यह भावना जड़ता में बदल जाती है। नए विचारों के लिए जगह नहीं बचती, और कार्यशैली एकरूप होकर अकर्मण्य हो जाती है।
--- ### **उदाहरणों की पड़ताल** भारत के कई राज्यों में यह समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। उदाहरण के लिए, कुछ जिलों में ऐसे तहसीलदार, सीएमओ, या पीडब्ल्यूडी इंजीनियर वर्षों से उसी जिले में तैनात हैं। कई मामलों में ये अधिकारी अपने पद का इस्तेमाल कर करोड़ों की अवैध संपत्ति जमा कर चुके हैं, और जांच की आड़ में मामला वर्षों तक लटकता रहता है। हाल ही में मीडिया रिपोर्ट्स में यह उजागर हुआ कि एक वरिष्ठ अधिकारी पिछले 12 वर्षों से एक ही मंत्रालय में तैनात है और विभागीय खरीद में अनियमितताओं के आरोप उन पर लगते रहे हैं। लेकिन राजनीतिक संरक्षण के चलते जांच कभी पूरी नहीं हुई।
--- ### **नुकसान किसका?** **1. जनता का:** जिस व्यवस्था को जनता की सेवा के लिए बनाया गया था, वही अब जनता की उपेक्षा कर रही है। जनता को समय पर सेवाएं नहीं मिलतीं, और उन्हें अनावश्यक दौड़-धूप करनी पड़ती है। **2. युवा अधिकारियों का:** जब वरिष्ठ अधिकारी पदों से चिपके रहते हैं, तो नव नियुक्त अधिकारियों को काम सीखने और खुद को साबित करने का अवसर नहीं मिलता। इससे प्रेरणा में कमी आती है। **3. शासन की छवि का:** एक ओर सरकार पारदर्शिता और जवाबदेही की बात करती है, वहीं दूसरी ओर अपने ही अफसरों के प्रति ढिलाई बरती जाती है। इससे शासन की नीयत पर सवाल उठते हैं।
--- ### **समाधान की दिशा में क्या किया जा सकता है?** **1. स्थानांतरण नीति का सख्ती से पालन:** हर राज्य में स्थानांतरण नीति है, लेकिन वह केवल दस्तावेजों तक सीमित है। उसका ईमानदारी से पालन किया जाना चाहिए। कोई भी अधिकारी एक ही स्थान पर 3 से 5 वर्ष से अधिक न रहे। **2. डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम:** अधिकारियों की तैनाती, स्थानांतरण और कार्यप्रदर्शन को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लाकर जनता के लिए पारदर्शी किया जाना चाहिए। इससे जवाबदेही बढ़ेगी। **3. स्वतंत्र प्रशासनिक आयोग:** राज्यों में एक स्वतंत्र प्रशासनिक आयोग की स्थापना की जाए, जो तैनाती और स्थानांतरण पर निर्णय ले और राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त हो।
**4. जन सहभागिता:** जनता को भी यह अधिकार दिया जाए कि वे किसी अधिकारी के खिलाफ सेवा में लापरवाही या भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकें, जिसकी जांच स्वतंत्र एजेंसी करे। **5. मीडिया और आरटीआई का उपयोग:** मीडिया को इस मुद्दे पर सतत दबाव बनाए रखना चाहिए। साथ ही, सूचना के अधिकार (RTI) के माध्यम से ऐसे मामलों को उजागर करने की आवश्यकता है।
--- ### **सुधार के उदाहरण भी मौजूद हैं** कुछ राज्य सरकारों ने ई-गवर्नेंस के ज़रिए तैनाती प्रक्रिया को ऑनलाइन किया है जिससे चयन में पारदर्शिता आई है। उत्तराखंड, केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों में डिजिटल ट्रांसफर सिस्टम ने सुधार की दिशा में सकारात्मक संकेत दिए हैं। इसी प्रकार, राजस्थान में एक समय सीमित स्थानांतरण नीति बनाई गई थी जिसमें अफसरों के नियमित रोटेशन का प्रावधान था। हालांकि इसका पालन निरंतर नहीं हो सका, लेकिन यह एक दिशा संकेत अवश्य था।
--- ### **निष्कर्ष:** भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए अब केवल नीतियों की घोषणा पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका ईमानदारी से पालन आवश्यक है। वर्षों तक मलाईदार पदों पर जमे अधिकारी व्यवस्था को खोखला कर रहे हैं। जब तक इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा, तब तक ‘अंत्योदय’ और ‘सुशासन’ जैसे आदर्श केवल भाषणों तक सीमित रहेंगे। सख्त राजनीतिक इच्छाशक्ति, जवाबदेह तंत्र और जागरूक नागरिक ही इस दिशा में परिवर्तन ला सकते हैं। वरना यह सड़ी हुई व्यवस्था देश को पीछे खींचती रहेगी।