जहरीली हवा से जूझती जिंदगी
जहरीली हवा से जूझती जिंदगी
देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में हवा की गुणवत्ता बेहद खराब या यों कहें कि जानलेवा बनती जा रही है। राजधानी के कई इलाकों में वायु गुणवत्ता सूचकांक 400 के पार पहुंच गया है। शीर्ष न्यायालय भी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बढ़ते प्रदूषण को लेकर गंभीर है और उसने सख्त उपाय करने को कहा है। केंद्र सरकार से लेकर दिल्ली और आसपास के राज्यों की सरकारें अलग-अलग दावे करती रही हैं, लेकिन इससे से प्रदूषण स्तर में कोई बड़ी राहत नजर नहीं आती है। भले ही इस गंभीर होती समस्या से पार पाने के लिए दिल्ली सरकार कई उपाय किए और प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए निर्देश जारी किए, लेकिन कारगर साबित नहीं हो पा रहे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की ताजा रपट बताती है कि विश्व स्तर पर हवा इस हद तक जहरीली चुकी है कि हमारी सांसों में धीमा जहर घुल रहा है। फेफड़ों 'प्रदूषणकारी तत्त्वों की तह लग रही है, जो धीमी मौत' का एक बड़ा कारण साबित हो सकता है। डब्लूएचओ की रपट बताती है कि प्रतिवर्ष लगभग पचास लाख लोग जहरीली हवा के चंगुल में आकर समय से पहले जिंदगी को अलविदा कह देते हैं। पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था 'ग्रीनपीस' ' की एक रपट के मुताबिक राजधानी दिल्ली दुनियाभर में सभी देशों की राजधानियों में सबसे ज्यादा प्रदूषित है। सवाल है कि पिछले कुछ सालों से लगातार इस महासंकट से जूझ रही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को कोई स्थायी समाधान की रोशनी क्यों नहीं मिलती ?
सरकारें और राजनेता एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समाधान के लिए तत्पर क्यों नहीं होते ? विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट में पीएम 2.5 के आधार पर बताया गया है कि दुनिया 'के सबसे 15 शहरों में 12 शहर भारत के हैं। वायु गुणवत्ता पर रपट के मुताबिक दुनिया के 30 सबसे अधिक प्रदूषित शहर भारत में हैं, जहां पीएम 2.5 की सालाना सघनता सबसे ज्यादा है। "बीएमजे " के अध्ययन में पाया गया है प्रदूषण वजह से भारत में हर साल कई कई लोगों की मौत होती है। पीएम यानी 'पार्टिकुलेट मैटर' एक किस्म है। इसके कण बेहद सूक्ष्म होते हैं जो हवा में बहते हैं। पीएम 2.5 या पीएम 10 हवा में कण 'आकार को बताता है। वायु में मौजूद यही कण हवा के साथ हमारे शरीर में प्रवेश कर खून में घुल जाते हैं। इससे शरीर में कई तरह की बीमारियां जैसे अस्थमा और सांसों की दिक्कत हो सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होता है, लिहाजा उसे अपनी जिम्मेदारी समझते हुए तत्काल कुछ सार्थक और ठोस उपाय करने होंगे। दुनिया में इस समय सबसे ज्यादा बीमारियां पर्यावरण प्रदूषण की वजह से हो रही हैं। मलेरिया, एड्स और तपेदिक से प्रति वर्ष जितने लोग मरते हैं, उससे कहीं ज्यादा लोग प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। बहरहाल, यही सवाल उठता है कि वायु प्रदूषण से हर वर्ष होने वाली मौत को रोकने के लिए सरकार की तरफ से क्या कदम उठाए जा रहे हैं? दशकों से यह बात सरकार और समाज को मालूम है, लेकिन इसको लेकर दोनों उदासीन बने हुए हैं।
ऐसा लगता है कि लोग अपने त्रासदीपूर्ण भविष्य को लेकर पूरी तरह से बेखबर हैं। वास्तव में वायु प्रदूषण की समस्या इतनी जटिल होती जा रही है। कि भविष्य अंधकारमय प्रतीत हो रहा है। वस्तुतः आज मनुष्य भोगवादी जीवन शैली का इतना आदी और स्वार्थी हो गया है कि अपने जीवन के मूल आधार वायु को ही दूषित कर रहा है। नैतिकता और कर्तव्य सब भूल रहा है। भौतिकतावादी जीवन शैली और विकास की अंधी दौड़ में आज मनुष्य यह भी भूल गया है कि जीवन के लिए स्वच्छ वायु कितनी आवश्यक है। बढ़ते वाहनों और कल-कारखानों से निकलते धुएं ने वायु को, वृक्षों की कटाई ने जीवनदायिनी गैसों को और मनुष्यों द्वारा फैलाई जा रही गंदगी ने जल को इस तेजी के साथ प्रदूषित किया है कि अब दुगनी गति से बीमारियां फैल रही है। यह सिलसिला आज भी जारी है। मानवीय सोच और विचारधारा में इतना ज्यादा बदलाव आ है कि किसी को भविष्य की कोई चिंता नहीं है। कोई दो राय नहीं है कि आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप पर्यावरण असंतुलन के कारण भूमंडलीय ताप, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल स्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियां पैदा होने लगी है।
यह सब मनुष्यों की लापरवाही का नतीजा है। अफसोस की बात है कि हम फिर भी चेत नहीं हो रहे हैं। नतीजा भारत में वायु प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है। चाहे केंद्र हो या फिर राज्य सरकारें, कोई भी प्रदूषण से निपटने के लिए गंभीर नहीं दिखता। जाहिर है, प्रदूषण से लड़ने के लिए दीर्घकालीन नीतियां बनाने की जरूरत है, वहीं लोगों को अपने स्तर पर वे सभी जतन करने की आवश्यकता है, जो हवा को जहरीली होने से रोकें। यह ठीक है कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने कई कदम उठाए थे। फिर भी वायु प्रदूषण से निपटने में हम फिसड्डी साबित हुए। ऐसे में भारत की जिम्मेदारी बड़ी और ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो जाती है, क्योंकि हमें विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में किए जा रहे उपायों को अपनाना पड़ेगा। दअरसल, वायु प्रदूषण ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है। वायु प्रदूषण से निपटने के लिए तात्कालिक कार्रवाई के बजाय निरंतर प्रयास करने की जरूरत है। स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को अपनाने, वाहनों की संख्या को नियंत्रित करने और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने जैसे उपाय दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकते हैं।
पराली जलाने की समस्या को हल करने के लिए किसानों को बेहतर तकनीक और सबसिडी प्रदान करना आवश्यक है, ताकि वे अधिक पर्यावरण-अनुकूल विकल्पों को अपनाएं। इसके साथ ही निर्माण स्थलों पर प्रदूषण नियंत्रण उपायों का सख्ती से पालन और औद्योगिक उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिए कड़े कानूनों की आवश्यकता है। एक व्यवस्थित निगरानी तंत्र से पूरे वर्ष वायु गुणवत्ता का मूल्यांकन करना जरूरी है ताकि प्रदूषण के स्तर समय रहते काबू में रखा जा सके। वायु प्रदूषण का मतलब केवल पेड़-पौधे लगाना ही नहीं है बल्कि, भूमि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण को भी रोकना है। तभी कुछ ठोस नजर आ सकेगा। वक्त कुछ करने का है, न कि सोचने का।
◆बंद नाक के दरवाजे खोल सर्दियों की शुरुआत होते ही हवा में प्रदूषण और खुश्की बढ़ जाती है।
ऐसे में नाक बंद - बंद महसूस होना या साइनस की परेशानी बढ़ना आम है। खासकर जिन्हें साइनसाइटिस की परेशानी रहती है उनके लिए यह मौसम मुश्किल रहता है। ऐसे में सर्दियों के मौसम में साइनसाइटिस को नियंत्रित करने के लिए कुछ तों का ध्यान रखा जा सकता है : हवा में नमी बनाएं: शुष्क हवा नाक के रास्ते और साइनस गुहाओं को परेशान कर सकती है, जिससे सूजन की संभावना बढ़ जाती है। घर या कार्यस्थल में ह्यूमिडिफायर का उपयोग करने से हवा को नम रखने और साइनस की असुविधा को कम करने में मदद मिल सकती है। तरावट रखें : पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ जैसे पानी, हर्बल चाय और शोरबा पीने से बलगम पतला हो सकता है और साइनस से निकासी को बढ़ावा मिल सकता है। प्रतिदिन कम से कम आठ गिलास तरल पदार्थ का सेवन जरूर करें। नाक की सफाई : अगर नियमित रूप से आप नाक की सफाई के लिए नमकीन पानी वाला जल स्प्रे या नेती पॉट का इस्तेमाल करते हैं तो नाक के अंदर और साइनस से बलगम, एलर्जेंट और उत्तेजक पदार्थ बाहर निकालने में मदद मिल सकती है। इससे आपको सांस लेने में राहत भी मिल सकती है और नाक में सूजन को रोका जा सकता है। एलर्जी से बचें: यदि आपको मौसमी एलर्जी है तो उन्हें नियंत्रित करने के लिए उचित उपाय करें। इसमें डॉक्टर से सलाह लें और वह जो भी ओवर-द-काउंटर या एंटीहिस्टामाइन, नेजल कॉर्टिकोस्टेरॉइड दे, उसका नियमित इस्तेमाल करें । उत्तेजक चीजों से बचें : धुआं, तेज गंध और हवा में फैलने वाले उत्तेजक पदार्थों के संपर्क में आने से साइनस की सूजन बढ़ सकती है। ये ट्रिगर्स हैं जो आपकी दिक्कत बढ़ा सकते हैं।
ऐसे में इनके संपर्क को जहां तक संभव हो, सीमित करें। डीकंजेस्टेंट का इस्तेमाल : ओवर-द-काउंटर डीकंजेस्टेंट अस्थायी राहत दे सकते हैं, लेकिन लंबे समय तक इनके उपयोग से दिक्कत फिर से आ सकती है। हालांकि डॉक्टर की ओर से जो भी कंजेस्टेंट सुझाया जाए, उसी का इस्तेमाल करें। खुद से नहीं गर्म सेक फायदेमंद : चेहरे पर गर्म, नम सेक लगाने से साइनस के दबाव को कम करने और निकासी को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है। तनाव का भी असर : तनाव हमारी इम्यूनिटी को कमजोर कर सकता है और आपको साइनस संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील बना सकता है। ऐसे में तनाव को कम करने के लिए व्यायाम, ध्यान या योग जैसी गतिविधियों में शामिल हों। डॉक्टर से मिलें : यदि आपके साइनस के लक्षण एक सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं, बिगड़ते हैं, बुखार आता है, गंभीर दर्द या अन्य चिंताजनक लक्षण उभरते हैं तो डॉक्टर से जरूर मिलें। हो सकता है कि आपकी स्थिति देखकर आपका डॉक्टर अतिरिक्त उपचारों की सिफारिश करे। जैसे कि एंटीबायोटिक्स या कॉर्टिकोस्टेरॉइड । इन ऐहतियात को लागू करके लोग सर्दियों के महीनों के दौरान साइनसाइटिस को प्रबंधित और नियंत्रित करने के लिए सक्रिय कदम उठा सकते हैं। हालांकि, यदि लक्षण बने रहते हैं या बिगड़ते हैं, तो आगे के मूल्यांकन और उपचार की आवश्यकता हो सकती है, इसलिए स्वास्थ्य पेशेवर से परामर्श करना आवश्यक है।
◆ डेंगू के लिए जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार -
विश्व स्तर पर डेंगू संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच, एक नए अध्ययन में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन डेंगू के बढ़ते मामलों के लिए 19 फीसद तक जिम्मेदार है। अमेरिका में अमेरिकन सोसाइटी आफ ट्रापिकल मेडिसिन एंड हाइजीन' (एएसटीएमएच) की सालाना बैठक में प्रस्तुत एक नए अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक डेंगू के मामलों में 40-60 फीसद की वृद्धि होने की संभावना है। स्टैनफोर्ड और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों के शोधककर्ताओं ने अब तक के सबसे निर्णायक सबूत पेश करते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन मच्छर से पैदा होने वाली बीमारी के विश्व भर में वृद्धि का एक बड़ा कारण है। अकेले अमेरिका के देशों में 2024 में लगभग 1.2 करोड़ मामले दर्ज किए गए हैं। अध्ययन में भविष्य में और भी अधिक वृद्धि की चेतावनी दी गई है। अध्ययन के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक 40-60 फीसद की वृद्धि होने की संभावना है। इसके अलावा कुछ क्षेत्रों में यह 150-200 फीसद तक बढ़ सकती है। स्टैनफोर्ड के वुड्स इंस्टीट्यूट फार एनवायरनमेंट में संक्रामक रोग के विशेषज्ञ एरिन मोडेर्काई ने कहा, हमने एशिया और अमेरिका के 21 देशों में डेंगू की घटनाओं और जलवायु परिवर्तन के आंकड़ों को देखा और पाया कि बढ़ते तापमान और बढ़ते संक्रमणों के बीच एक स्पष्ट और सीधा संबंध है। मोडेर्काई ने आगे कहा कि यह इस बात का प्रमाण है कि जलवायु परिवर्तन पहले से ही मानव स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बन चुका है और विशेष रूप से डेंगू के लिए, हमारे आंकड़े बताते हैं कि इसका प्रभाव और भी अधिक बुरा हो सकता है। मोडेर्काई ने कहा कि कुछ डेंगू संक्रमण केवल हल्के लक्षण पैदा करते हैं।
अन्य जोड़ों में दर्द पैदा करते हैं और गंभीर मामलों में रक्तस्राव संबंधी जटिलताएं हो सकती हैं। इस बीमारी के इलाज के लिए कोई दवा नहीं है और जबकि दो लाइसेंस प्राप्त डेंगू टीके उपलब्ध हैं, कुछ डेंगू विशेषज्ञों ने दोनों के साथ चुनौतियों की ओर इशारा किया है जो व्यापक रूप से अपनाने को सीमित कर सकते हैं। डेंगू के बढ़ते खतरे के बीच, उत्सर्जन को कम करके ग्लोबल वार्मिंग को कम करने से डेंगू संक्रमण पर जलवायु प्रभाव भी कम होगा। उत्सर्जन में भारी कटौती के साथ, जो क्षेत्र अभी 60 फीसद वृद्धि का अनुभव करने की राह पर हैं, वहां अब से 2050 के बीच डेंगू संक्रमण में लगभग 40 फीसद की वृद्धि देखी जाएगी। हालांकि, वैश्विक जलवायु माडल यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि उत्सर्जन में बड़ी कमी के बाद भी तापमान में वृद्धि जारी रहेगी, शोधकताओं ने पाया कि 17 देशों में कार्बन कटौती के लिए सबसे आशावादी परिदृश्यों के तहत भी डेंगू में जलवायु संचालित वृद्धि देखी जाएगी।
◆'सॉफ्ट स्किल्स' के बिन कॅरिअर है अधूरा-
आज के जॉब मार्केट में प्रतिस्पर्धा बहुत ही ज्यादा है। इसमें टिके रहने के लिए दमदार तकनीकी विशेषज्ञता का होना जरूरी है, किंतु सिर्फ इसी के दम पर आप अपने कॅरिअर में कामयाबी पा जाएं, इसकी कोई गारंटी नहीं है। जीआई ग्रुप होल्डिंग इंडिया के वाइस प्रेसिडेंट स्वदीप कुमार सेन ने कहा कि आज के दौर में नियोक्ता सॉफ्ट स्किल्स को बहुत अहमियत दे रहे हैं। सॉफ्ट स्किल्स, यानी वे व्यक्तिगत गुण और पारस्परिक क्षमताएं, जो असरदार सहयोग, संप्रेषण एवं समस्या हल करने की काबिलियत को उजागर करते हैं। ये कौशल आपके तकनीकी ज्ञान के पूरक बनते हैं और आपके कॅरिअर निर्माण में प्रभावशाली साबित होते हैं। अनुकूलन क्षमताः अनुकूलन क्षमता वह कौशल है, जिसके होने से कोई व्यक्ति हो रहे बदलावों के अनुसार खुद को तेजी से ढाल लेता है और सकारात्मक रवैये के साथ नई चुनौतियों का सामना करता है। अनुकूलन क्षमता होने का मतलब यह है कि आप विभिन्न परिवेशों में आगे बढ़ सकते हैं, नए कौशल सीख सकते हैं और निरंतर बदलते हुए माहौल में प्रासंगिक बने रह सकते हैं। वास्तव में, नेतृत्व और नवप्रवर्तन के लिए अनुकूलन क्षमता को बुनियादी कौशल के रूप में देखा जाता है।
प्रभावी संप्रेषण : आपकी भूमिका या इंडस्ट्री कोई भी हो, संप्रेषण सफलता की कुंजी है। प्रभावी संप्रेषण में न केवल स्पष्टता व आत्मविश्वास से कहना, बल्कि ध्यान से सुनना और दूसरों के दृष्टिकोण को समझना भी शामिल है। चाहे आप कोई प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहे हों, फीडबैक दे रहे हों या टीम सदस्यों के साथ मिलकर काम कर रहे हों, , पुख्ता संप्रेषण यह सुनिश्चित करता है कि आपके विचारों को लोग आसानी से समझ सकें। भावनात्मक बुद्धिमत्ताः भावनात्मक बुद्धिमत्ता यानी इमोशनल इंटेलीजेंस (ईक्यू) आपको अपनी खुद की और दूसरों की भावनाओं को पहचानने, समझने व संभालने की क्षमता प्रदान करती है। यह एक ऐसा कौशल है, जो टीम में आपके प्रभावी ढंग से काम करने, मजबूत संबंध विकसित करने और विवादों को सृजनात्मक तरीके से संभालने की योग्यता बढ़ाता है। उच्च भावनात्मक बुद्धिमत्ता को अक्सर बेहतर नेतृत्व एवं निर्णय लेने की काबिलियत से जोड़ा जाता है, क्योंकि यह लोगों को कार्यस्थल पर पेचीदा सामाजिक संबंधों को संभालने में मददगार साबित होती है।
लचीलापनः लचीलापन वह क्षमता है, जिसके होने से व्यक्ति नाकामियों से उबरकर अपना काम जारी रखता है, चाहे कोई भी विपरीत स्थिति हो, वह हार नहीं मानता, गिर कर फिर उठ खड़ा होता है। पेशेवर दुनिया में नाकामयाबी से दो-चार होते रहना पड़ता है। कभी कोई प्रोजेक्ट फेल हो जाता है, कभी मौका हाथ से निकल जाता है या अप्रत्याशित बदलाव हो जाते हैं। जिनमें लचीलापन होता है, वे अपनी सोच सकारात्मक बनाए रखते हैं, अपने अनुभवों से सीखते हैं और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में अपने प्रयासों को निरंतर जारी रखते हैं। सहयोगः जैसे-जैसे कार्यस्थल पहले से ज्यादा सहयोगात्मक और क्रॉस-फंक्शनल बनते जा रहे हैं, वैसे-वैसे टीम में रह कर काम करने की योग्यता और ज्यादा जरूरी होती जा रही है। सहयोग का मतलब है विचारों को साझा करना, दूसरे कर्मचारियों की क्षमताओं का उपयोग करना और साझे लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु समूह के प्रयासों में योगदान देना। जो पेशेवर प्रभावशाली तरीके से सहयोग कर सकते हैं, वे न केवल अपने काम की गुणवत्ता में इजाफा करते हैं, बल्कि अपने सहयोगियों के संग ज्यादा मजबूत रिश्ते भी कायम करते हैं।
नेतृत्वः नेतृत्व का तात्पर्य सिर्फ टीम का प्रबंधन करना भर नहीं है, बल्कि इसका आशय है दूसरों को प्रेरित करना, फैसले लेना और सफलता की ओर समूह का मार्गदर्शन करना। भले ही आप औपचारिक रूप से नेतृत्व के ओहदे पर न हों, किंतु फिर भी पहल करना, जवाबदेही दर्शाना और सकारात्मक रूप से दूसरों को प्रभावित करना, ये सभी गुण नेतृत्व के ही हैं। मजबूत नेतृत्व कौशल वाले पेशेवर अक्सर बड़े जिम्मेदार पदों पर पाए जाएंगे, क्योंकि वे परियोजनाओं और टीमों का असरदार ढंग से मार्गदर्शन करने में सक्षम होते हैं।
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