पाप कर्म-धर्म कर्म
पाप कर्म-धर्म कर्म
नादानी में लोग लुक-छिप कर पाप कर्म कर लेते हैं और खुश होते हैं कि किसी ने उसको यह करते देखा ही नहीं हैं और मर्म ही रह जाएगा उनका यह कर्म ऐसा सोच लेते हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि सबका हर कर्म पाप हो या धर्म स्व- सूचीबद्ध होता जाता है । धर्म शुद्ध आत्मा में टिकता है ।व्यक्ति धर्म करता है , अनेकों अनेकों जन्मों के कर्म साथ लेकर चलते हैं , संस्कारों का बोझ भी ढोते हैं जिनमें अच्छे और बुरे सब आते हैं , यह सब संयोग पर निर्भर करता है । व्यक्ति में ग्रहण शीलता होने पर ही ज्ञान टिकता है ।
धर्म शुद्ध आत्मा में ही टिकता है । शुद्ध आत्मा किससे कहें ! उसके क्या गुण या लक्षण होते हैं ! जो व्यक्ति ऋजू मना होता है , सरल हृदय वाला होता है , अनुकंपा शील होता है वही शुद्ध आत्मा वाला माना जाता है । आचारांग सूत्र में बताया गया है कि शुद्ध मन वाला व्यक्ति जैसा भीतर से होता है वैसा ही बाहर से होता है वह किसी के साथ धोखा धडी नहीं करता हैं । जीवन में किसी के साथ भी छल , कपट नहीं करना चाहिए , जीवन पारदर्शी होना चाहिए । व्यक्ति को शुद्ध और नेक जीवन जीना चाहिए , जिस प्रकार शुद्ध पात्र में वस्तु ठहर पाती है वैसे ही धर्म के लिए भी शुद्ध आत्मा का होना जरूरी है। कर्मों का यह चित्र सचमुच ही विचित्र है जो कितने - कितने जन्मों के साथ जुड़ा हुआ है । इस वर्तमान जीवन का नाता आदमी बुद्धिमान होकर भी जीवन के इस सच को क्यों नही समझ पाता है ।
लंबे सफर में न धन साथ में जाता है न परिवार फिर भी हम यह भार व्यर्थ ढोने से कहां चूकते हैं ? इसलिए हमें स्थाई शांति व स्थाई सुख के पथ को ही अपनाना है और उसी दिशा में अपने चरणों को सदा गतिमान बनाना है । हम अगर यह मस्तिष्क में जमा कर रख ले और याद कर लें तो हर कर्म करने से पहले कभी किसी से पापकर्म हो ही नहीं सकता है । प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़ )