हवा स्वच्छ रखने में नागरिकों की की भूमिका
हवा स्वच्छ रखने में नागरिकों की की भूमिका
सर्दी शुरू होते ही उत्तर भारत में एक बड़े हिस्से में स्वच्छ हवा लोगों की पहुंच से दूर होने लगती है। इस वैरान वायु प्रदूषण की समस्या गंभीर रूप धारण कर लेती है। इस वायु प्रदूषण से निपटने के लिए सरकारी एजेंसियों, उद्योगों और नागरिकों की तरफ से सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है। वर्ष 2017 से भारत सरकार ने दिल्ली- एनसीआर के लिए ग्रेडेड एक्शन रिस्पांस प्लान (ग्रेप) राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम और 15वें वित्त आयोग के 'मिलियन प्लस चैलेंज फंड' के तहत धन आवंटन जैसे कदमों के माध्यम से वायु गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता दर्शाई है। हालांकि वायु गुणवत्ता में कुछ सुधार होने के बावजूद अभी भी कई शहर राष्ट्रीय परिवेशीय वायु गुणवत्ता मानकों की पार कर जा रहे हैं। सर्दियों के वैरान बारिश कम होने, हवा की गति धीमी होने और मिक्सिंग हाइट (यानी सतह से ऊपर की वह ऊंचाई जहाँ तक प्रदूषण तत्वों का फैलाव हो सकता है) घटने से प्रदूषण तत्वों के फंसने जैसी उत्तर भारत की मौसमी परिस्थितियों के कारण वायु प्रदूषण का बिखराव मुश्किल हो जाता है।
इससे हवा में पार्टिकुलेट यानी अतिसूक्ष्म कणों का घनत्व बढ़ जाता है, जिससे एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) अधिक हो जाता है। इसलिए एकमात्र समाधन है कि सर्दियों के दौरान विभिन्न उत्सर्जनों में व्यापक कटौती की जाए। सामूहिक व्यवहार में बदलाव वायु गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए नागरिकों को अपने सामूहिक व्यवहार में ढांचागत बदलाव लाने चाहिए। इन बदलावों में यह शामिल है कि हम कैसे यात्रा करते है। इससे वाहनों से होने वाला उत्सर्जन प्रभावित होता है कैसे हम कचरे का प्रबंधन करते हैं याने कचरा जलाते हैं या उसका विज्ञानिक विधि से निस्तारण करते हैं और कैसे खाना पकाते हैं या स्वयं को गर्म रखते हैं जिसके लिए हम अक्सर जैव ईंधन जलाते हैं, जिससे उत्सर्जन बढ़ता है। दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में कमीशन फार एयर क्वालिटी मैनेजमेंट (सीएक्यूएम) ने नागरिकों के लिए वायु प्रदूषण के दौरान उठाए जाने वाले कदमों की एक सूचं दी है। ये कदम वायु प्रदूषण की गंभीरता के आधार पर अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए, ग्रेप स्टेज 1 लागू होने के दौरान जब एक्यूआई खराब श्रेणी और 201-300 के बीच रहता है, नागरिकों से वाहनों की प्रदूषण जांच कराते हुए उन्हें अच्छी स्थिति में रखने जैसे उपाय करने का अनुरोध किया जाता है जब वायु गुणवत्ता ज्यादा बिगड़ जाती है और ग्रेप स्टेज 3 लागू होता है, तब सरकार नागरिकों को घर से काम करने का विकल्प चुनने की सलाह देती है। इन उपायों की सफलता में नागरिकों की और से इनका अनुपालन महत्वपूर्ण है।
प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों की जानकारी लोगें की प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों की जानकारी देते हुए वायु गुणवत्ता प्रशासन में सक्रिय सहयोग करने की नागरिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए। नागरिक अपने साधारण मोबाइल फोन से नागरिक शिकायत निवारण एप के माध्यम से टूटी सड़कों, कूड़ा-कचरा जलाने और प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों जैसे प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों की जानकारी दे सकते हैं। देश के लगभग 130 शहरों में सिटी एक्शन प्लान के तहत इस उद्देश्य से आनलाइन प्लेटफार्म उपलब्ध कराए गए हैं, जिसके माध्यम से नागरिक वायु प्रदूषण से जुड़ी शिकायतें दर्ज करा सकते हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में में समीर, ग्रीन दिल्ली और एमसीडी 311 जैसे कई मोबाइल एप्लीकेशंस हैं, जी इन शिकायतों को देखते हैं। पिछले साल काउंसिल आन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) ने पर्यावरण विभाग (जीएनसीटीडी) के साथ मिलकर प्रदूषण के स्थानीय स्रोतों की सूची बनाने और प्राथमिकता निर्धारण की एक पद्धति तैयार की थी। यह उपाय अन्य राज्यों में भी इस्तेमाल किया गया है। इस पद्धति का आधार शहर के सजग नागरिकों की और से सार्वजनिक शिकायत निवारण एप पर दर्ज कराई जाने वाली शिकायतें हैं। इस तरह के एप के बारे में जागरूकता और इनका उपयोग बढ़ाना जरूरी है, क्योंकि अभी इनका उपयोग बहुत ही सीमित है।
जनभागीदारी भारत में वायु गुणवत्ता सुधरों के माध्यम से जोर देने के लिए धन उपलब्धता और राजनीतिक गतिशीलता दोनों ही मामलों में सीमित संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धी मांग हमेश मौजूद रहेगी। हालांकि जागरूक और मुखर नागरिक अपने परिवार, समुदायें और इंटरनेट मीडिया पर इसके बारे में जागरूकता बढ़ाते हुए इसके महत्व में बढ़ोतरी कर सकते हैं। यदि आस-पड़ोस में प्रदूषण स्त्रोतों से जुड़ी शिकायतों की संख्या काफी बढ़ जाती है, तो यह सजग नागरिकों की एक महत्वपूर्ण चिंता का संकेत होगा, जो संभावित रूप से राजनीतिक प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकता है। स्वच्छ भारत मिशन इसका एक प्रमुख उदाहरण है कि कैसे किसी पहल को जन आंदोलन में बदलकर सफल बनाया जा सकता है। जवाबदेही स्वच्छ हवा जितना एक मौलिक अधिकार है, उतना ही एक साझी जिम्मेदारी है। नागरिकों को वायु प्रदूषण के बारे में गंभीरता से विचार करन चाहिए और इसे दूर करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए। भारत की तेजी से बिगड़ती वायु गुणवत्ता की समस्या को दूर करने के लिए नागरिकों की न केवल अधिकारियों की जवाबदेही तय करनी चाहिए, बल्कि इसे बेहतर बनाने वाले सामुदायिक प्रयासों में सक्रिय भागीदारी दिखानी चाहिए। तभी हम प्रदूषण मुक्त सर्दियों का आनंद दोबारा हासिल सकते हैं, जो अभी प्रदूषण के साथ आती है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
दिखावे के रोग
विजय गर्ग मध्यमवर्गीय समाज के कुछ लोग इन दिनों अनेक धनपतियों को देख-देख कर खुद को उनके जैसा ही दिखाने के भ्रम में कर्ज में डूबते चले जा रहे हैं। मासिक किस्त यानी 'ईएमआइ' के भरोसे अपने आप को 'रिच ' यानी धनी महसूस करने की मानसिकता में लोग मतवाले हुए जा रहे हैं। इस व्यामोह से कुछ किशोर और यहां तक कि बच्चे भी ग्रस्त दिखते हैं। पिछले दिनों एक निजी स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका उच्च विद्यालय में पढ़ने वाले अपने बच्चे के बारे में अपनी सहेली को दुखी होकर बता रही थी कि मेरे बेटे को शहर के सिनेमा हाल में जाकर फिल्म देखना ही पसंद नहीं । उसे किसी माल में जाकर फिल्म देख कर ही संतुष्टि मिलती है और वहां जाने के बाद जब तक वह सात सौ रुपए वाला बड़ा पापकार्न खरीद कर न खाएं, तब तक उसे चैन नहीं पड़ता। ऐसा वह सिर्फ इसलिए करता है कि तब उसे 'रिच फीलिंग' ( अमीर दिखने की अनुभूति) होती है। वह खुद को अनेक धनपतियों की श्रेणी में खड़ा पाता । वह किसी सामान्य दुकान से कपड़े नहीं खरीदता, बल्कि किसी बड़े माल में जाकर मशहूर ब्रांड के पैंट-शर्ट, जूते, घड़ी आदि खरीद कर पहनने का आदी हो चुका है। उसकी मां आए दिन बेटे की आनलाइन खरीदारी से भी परेशान हैं। घर में तीन- चार चश्मे पहले से पड़े हुए हैं। मगर उसे मोबाइल में आनलाइन कारोबार वाली किसी वेबसाइट पर कोई नया चश्मा पसंद आ जाएगा, तो फौरन आर्डर कर देगा। चमकदार जूते, घड़ी आदि नजर आते ही वह आर्डर कर देगा, भले ही ये सब चीजें उसके पास पहले से ही मौजूद हों। मां समझाती है, पर वह मानता नहीं ।
इस उद्धरण को सिर्फ संदर्भ के तौर पर देखा जा सकता है। सच यह है कि ऐसे बच्चे और उनकी ऐसी सोच-समझ और व्यवहार अब समाज में आम मामलों की तरह देखा जा सकता है। सक्षम तबकों से आने वाले ज्यादातर बच्चे इसी मानसिक ढांचे के तहत अपना जीवन-चक्र आगे बढ़ा रहे हैं । दिखावा एक सामाजिक मूल्य बनता जा रहा है। मगर इस सबसे बेखबर समाज के दूसरे वर्ग भी दिखावे के इस रोग की गिरफ्त में आ रहे हैं। एक नशा बाहर के खाने का भी है। अब अनेक बच्चों को घर का खाना पसंद नहीं आता, आनलाइन पिज्जा और ठंडे पेय मंगा कर खाना-पीना उसे खूब भाता है। आनलाइन खरीदी का नशा अलग है। ऐसे तमाम बच्चे हैं, जिनकी मां की एक बड़ी राशि बेटे की आनलाइन खरीदारी में चली जाती है। वह बार-बार समझाती है, लेकिन अमीर होने के अहसास होने से मार की वजह से यह बात समझ में नहीं आती कि मां को अपनी सीमित तनख्वाह के भरोसे महीने भर घर चलाना है। मां की आर्थिक दिक्कत से बेटे का कोई सरोकार नहीं । उसे अपनी अमीर होने की अनुभूति की चिंता है। मसलन, कभी-कभी आंदोलनकर्मी नारे लगाते हैं कि 'चाहे जो मजबूरी हो, हमारी मांगें पूरी हों'। इसी तरह, कुछ बच्चों की जिद रहती है कि भले ही माता-पिता के बैंक खाते में पैसे खत्म हो गए हों, मगर उन्हें जो चीज चाहिए तो वह चाहिए ही । इस तनाव में मां को मजबूरी में कहीं से उधार मांगना पड़ता है। ऐसे अनेक बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों में मौजूद हैं, जो आर्थिक हैसियत न होने के बावजूद सिर्फ इसलिए अनाप-शनाप चीजें खरीद लेते हैं कि उनकी 'रिच फीलिंग' बरकरार रहे।
माता-पिता को कर्ज में डुबोकर बच्चे बड़े आत्मविश्वास में भरकर कहते हैं कि जब वे कमाने लगेंगे, तो महंगी कार खरीदेंगे, पूरी दुनिया की सैर करेंगे, भले ही अभी पुरानी कार खरीदने की भी आर्थिक हैसियत नहीं हो, मगर अमीरी के सपने देखने में कोई कमी नहीं । एक पिता अपने दो बेटों की इसी मानसिकता से त्रस्त थे कि उसके कारण ही वे कर्ज में डूबे हुए हैं।‘आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया' वाली स्थिति है। ऐसे अहसास के शिकार वे बच्चे अधिक हैं, जो पढ़ाई-लिखाई को गंभीरता से नहीं लेते और हर समय स्मार्टफोन में नजरें गड़ाए रखते हैं। अब तो स्मार्टवाच भी है, जिसमें मनोरंजन के बहुत से इंतजाम हैं। ऐसे बच्चों की महंगी फरमाइशों को पूरा करते-करते अभिभावक परेशान हो जाते हैं, लेकिन अपने बच्चों को समझा ही नहीं पाते कि हम तुम्हारे अमीर होने के अहसास को और बर्दाश्त नहीं कर सकते। कड़े शब्दों का प्रयोग इसलिए भी नहीं करते कि कहीं इसका दुष्परिणाम न हो । आए दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, जिसमें मां ने डांट दिया तो लड़का घर से भाग गया। महंगा मोबाइल नहीं दिलाया तो बच्चा फंदे से लटक गया। सही है कि इस बाजारवाद की सबसे भयावह चीज यही है कि मध्यवर्गीय परिवार के अनेक बच्चे अपने अभिभावकों की परेशानियों को समझना नहीं चाहते । सिर्फ यह कि किसी भी सूरत में उनकी इच्छाओं की पूर्ति हो जाए। जबकि बाजार सामान्य इच्छाओं को भी एक बेलगाम भूख में तब्दील कर देता है। अब तो महंगा आइ- फोन 'स्टेटस सिंबल' या ऊंची हैसियत का प्रतीक बन चुका है। मन में यह गर्वीला भाव जागृत होता है कि हम भी कुछ हैं।
बच्चे स्कूल या कालेज में अपने साथियों को दिखाते हैं कि हमारे पास भी आइ-फोन है, भले ही उसकी मासिक किस्त भरते- भरते अभिभावक परेशान रहें। एक सवाल यह भी है कि बच्चों की सोच-समझ की इस दिशा में आगे बढ़ते जाने में क्या अभिभावकों की जिम्मेदारी नहीं बनती ? क्या बच्चों के भीतर अभिरुचि के विकास और उनके एक जिद में तब्दील होने में अभिभावकों की अनदेखी की कोई भूमिका नहीं है? हालांकि समझदार बच्चे घर-परिवार की आर्थिक परेशानियों को देखते हुए कभी अनावश्यक जिद नहीं करते। वे दिखावे की होड़ में बिल्कुल नहीं पड़ते और यथार्थ में जीते हैं। जैसी चादर है, उसके हिसाब से पैर फैलाना चाहिए। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब [3) यादों को सहेजने में मस्तिष्क के अलावा अन्य कोशिकाएं सहायक विजय गर्ग यह सभी को पता है कि हमारा मस्तिष्क स्मृतियों को सहेज कर रखता है। लेकिन एक शोध में सामने आया है कि शरीर के अन्य भागों की कोशिकाएं भी यादों को संग्रहीत करने का काम करती हैं। इससे यह समझने के नए विकल्प खुले हैं कि स्मृति कैसे काम करती है। साथ ही सीखने की क्षमता बढ़ाने और स्मृति संबंधी विकारों के इलाज को लेकर नई उम्मीदें भी जगी हैं। यह शोध नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
न्यूयार्क विश्वविद्यालय के निकोले वी. कुकुश्किन ने कहा कि कोई चीज सीखना और उसे याद रखना आम तौर पर मस्तिष्क और मस्तिष्क कोशिकाओं से जुड़ा होता है। लेकिन अध्ययन दिखाता है कि शरीर की अन्य कोशिकाएं भी सीख सकती हैं और इसे याद रख सकती हैं। विज्ञानियों ने दो प्रकार की गैर-मस्तिष्क मानव कोशिकाओं पर इसे लेकर प्रयोग किया। उन्हें रासायनिक संकेतों के विभिन्न पैटर्न के संपर्क में लाकर समय के साथ सीखने की प्रक्रिया को दोहराया गया । यह ठीक उसी तरह की प्रक्रिया थी, जैसे मस्तिष्क की कोशिकाएं न्यूरोट्रांसमीटर के पैटर्न के संपर्क में आती हैं जब हम नई जानकारी सीखते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि मस्तिष्क कोशिकाओं की तरह गैर-मस्तिष्क कोशिकाएं भी नई जानकारी के प्रति प्रतिक्रिया में मेमोरी जीन को सक्रिय कर देती हैं। इसमें यह बात भी सामने आई कि जब कोशिकाएं ब्रेक लेकर सीखती हैं, तो बेहतर तरीके से काम करती है, जैसे कि जब हम ब्रेक लेकर सीखते हैं, तो मस्तिष्क के न्यूरान्स अधिक प्रभावी ढंग से कार्य करते हैं। पुनरावृत्ति से सीखने की क्षमता मस्तिष्क कोशिकाओं के लिए अद्वितीय नहीं है। यह सभी कोशिकाओं की मौलिक विशेषता है।
बुढ़ापे में मुक्ति का रास्ता किताबों से होकर जाता है।
विजय गर्ग जब भी हम कोई अच्छी किताब पढ़ते हैं तो यह नए विचारों, संभावनाओं और संस्कृतियों के ज्ञान का रास्ता खोलती है। यह उद्धरण वेरा नाज़ेरियन का है। बचपन से ही हम सुनते आ रहे हैं कि किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं जो हमें जीवन भर एक शिक्षक की तरह सिखाती हैं। एक मां की तरह वह हर मुश्किल में हमारा साथ देती है और एक पिता की तरह वह हमें हर परिस्थिति में सही रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी लेती है। वस्तुतः यह उन्हीं से प्राप्त ज्ञान हैजीवन हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करता है और हमें बेहतर बनाता है। कभी-कभी कई रिश्ते हमें भटका देते हैं, लेकिन किताबों का रिश्ता ही होता है जो हमें सही रास्ता दिखाकर मुश्किल वक्त में मदद करता है। किताबें हमारे दुख, दर्द, सुख और अकेलेपन की साथी होती हैं। इतना ही नहीं, वे ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से हम उन महान हस्तियों के बारे में आसानी से जान सकते हैं, जो...हम अपना आदर्श मानते हैं. कभी-कभी जीवन इतना नीरस हो जाता है कि हमें ऐसा लगता है जैसे हमें पता ही नहीं है कि क्या करना है। ऐसे में हम उन लोगों को जानते हैं और उनके नक्शेकदम पर चलने की प्रेरणा इन किताबों से लेते हैं। किताबें न सिर्फ हमारे व्यक्तित्व को आकार देती हैं बल्कि हमें मानसिक समस्याओं से भी बचाती हैं। पढ़ना मस्तिष्क के लिए अच्छा व्यायाम है। पढ़ाई करते समय हमारी एकाग्रता बढ़ती है, जिससे हम किसी भी परिस्थिति में अपना लक्ष्य हासिल करना सीखते हैं। यहहमारे मस्तिष्क को सक्रिय रखता है।
यदि हम अपने मस्तिष्क को सक्रिय रखें तो हम अपनी याददाश्त में कुछ हद तक सुधार कर सकते हैं। यह कमजोरी या अवसाद को रोकने के उपचार के रूप में प्रभावी है। इसके अलावा अगर हम अच्छी किताबें पढ़ने के साथ-साथ खुद में लिखने की आदत भी अपना लें तो इसका परिणाम और भी बेहतर मिलता है। आजकल, डॉक्टर किसी भी बड़ी बीमारी का इलाज करते समय साक्षरता को उपचार पद्धति के रूप में भी उपयोग करते हैं, क्योंकि कई दवाओं के अक्सर दुष्प्रभाव होते हैं जो मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं।वे सिस्टम को प्रभावित करते हैं. इससे याददाश्त खोने का डर रहता है. ऐसे में मरीज को पढ़ने-लिखने की सलाह दी जाती है, ताकि दिमाग सक्रिय रूप से काम कर सके। आज बदलते समय के साथ हमारी मित्र यानी किताबों का अंदाज और स्वरूप भी बदलने लगा है। जहां पहले किताबें पढ़ते समय उनकी भीनी-भीनी खुशबू हमारे दिमाग पर छाप छोड़ जाती थी, वहीं आज किताबें डिजिटल हो गई हैं और एक छोटे से उपकरण में हमारी जेब में फिट हो जाती हैं। हालाँकि, अगर कोई शारीरिक रूप से अक्षम है, तो वह वही हैयह उनके लिए किसी वरदान से कम नहीं है क्योंकि वे एक जगह बैठकर पढ़ और सुन सकते हैं। इसके अलावा ये पर्यावरण के अनुकूल भी हैं क्योंकि इन्हें प्रकाशित करने में लाखों रुपये का खर्च आता है।
मुद्रित पुस्तकों को साझा करके हम सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों को मजबूत कर सकते हैं। किताबें इस बात का भी सबूत हैं कि कई प्रेमी जोड़ों ने एक-दूसरे से किताबें शेयर करते हुए इन किताबों के जरिए अपने दिल की बात कही है। आज विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की मदद से कुछ लोग हीएक क्लिक से अपनी भावनाएं व्यक्त करें। यह और बात है कि आभासी दुनिया में केवल दस प्रतिशत लोग ही सच्चे दिल वाले होते हैं और उन्हें सच्चा प्यार मिल पाता है। यह भी देखें यह ज्ञात है कि इन प्लेटफार्मों पर लाभ के साथ-साथ हानि भी होती है। जब प्यार किताबों पर आधारित होता था तो प्रेमी-प्रेमिका काफी मशक्कत के बाद अपने दिल की बात अपने पार्टनर तक पहुंचा पाते थे। इस पद्धति में यह डर रहता था कि पुस्तक प्रेमी के हाथ लगेगी या नहीं और उसे पढ़ने के बाद उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। कभी किताब में गुलाब डालो तो कभीमोर के पंख ऐसी कई भावनाएँ हमारी किताबों से जुड़ी हैं। जीवन के आखिरी पड़ाव पर भी अगर हम अपनी किताबों को सीने से लगाकर रखें तो न जाने कितनी ही कही गई बातों की यादें ताजा हो जाएंगी। हर उम्र के साथ किताबों के मायने बदल जाते हैं। बचपन में जब बच्चा पढ़ना शुरू करता है तो उसे रंग-बिरंगी तस्वीरें ही नई दुनिया नजर आने लगती हैं। जैसे-जैसे वह युवावस्था में पहुंचता है, वह ज्ञान के भंडार की खोज करना शुरू कर देता है। फिर पाठ्यपुस्तकों से नहींसहायक पुस्तकें उसे अच्छे अंक प्राप्त करने में मदद करती हैं।
युवावस्था तक पहुंचने तक, ज्ञान का संचय व्यक्ति के व्यक्तित्व को आकार देना शुरू कर देता है। वयस्कता तक किताबें दिल और दुनिया की तस्वीर बन जाती हैं। बुढ़ापे में मुक्ति का रास्ता किताबों से होकर जाता है। दरअसल किताबें हमें हर दिन, शुरू से अंत तक कदम दर कदम चलना सिखाती हैं। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक आदि विभिन्न क्षेत्रों का ज्ञान हमें पुस्तकों से ही मिलता है। लेकिन आज व्यवसायीकरण के कारण किताबों में अश्लीलता फैल गई है। कौनक्योंकि युवा पीढ़ी लक्ष्य से भटक रही है। अच्छी किताबों से बढ़ती दूरी हमें नैतिक पतन, भौतिकवाद और मादक आधुनिकता का शिकार बना रही है। इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक बच्चे में नियमित रूप से और स्वतंत्र रूप से पढ़ने और सीखने की आदत विकसित हो। पढ़ाई करते हुए अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ें। विजय गर्ग, सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट [4) कम मेहनत से अधिक पढ़ाई के मंत्र विजय गर्ग अभी एक स्टूडेंट हैं या फिर चाहे स्कूल-कालेज में पढ़ रहे हाँ या किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हों। सभी को कुछ बुनियादी बातों की जानकारी होना बहुत जरूरी है। यदि विद्यार्थी की बात करें, तो वह दीपावली में जलते हुए एक दीपक की तरह होता है, जो लगातार अपने अध्ययन के प्रकाश के द्वारा अपनी अज्ञानता की कालिमा के विरुद्ध जूझता रहता है। इस तरह से देखा जाए, तो आप एक योद्धा भी हैं। आपको अपनी इस पहचान को हमेशा याद रखना चाहिए। यदि आप इसे याद रखे रहेंगे, तो इतना करने भर से आपके मन में उत्साह बना रहेगा। आप निराश और उदास नहीं होंगे आपके शरीर को आलस्य जकड़ नहीं पाएग आपका दिमाग एक सैनिक की तरह हमेशा सतर्क और चौकन्ना रहेगा। वह तरोताजा बना रहेगा।
ऐसे मन, ऐसे शरीर और ऐसे दिमाग से जो पढ़ाई होगी, वह कमाल की होगी। आप यह कमाल केवल इस छोटे से वाक्य को याद रखकर कर सकते हैं कि 'मैं एक ज्ञान योद्धा हूं।' दूसरा तत्व है सफाई का हमारा घर चाहे जैसा भी हो, दीपावली पर हम उसकी सफाई करते ही हैं। इससे घर के कबाड़ से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही हमें स्वच्छता का भी अनुभव होता है। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने एक बहुत बड़ी उपयोगी और व्यावहारिक बात कही थी। उनका कहना था कि जहाँ भी कूड़ा-कर्कट, सड़ी-गली और बेकार की वस्तुएं पड़ी रहती हैं, उस स्थान से बड़ी मात्रा में नकारात्मक ऊर्जा निकलती है। इसके ठीक विपरीत जो स्थान जितना अधिक साफ-सुथरा होगा, प्रकाशवान होगा, वहाँ की ऊर्जा उतनी ही अधिक सकारात्मक होगी। इसलिए दीपावली के दिन तक हम सभी अपने-अपने घरों की साफ-सफाई, लिपाई पुताई करके उसे सकारात्मक ऊर्जा का केंद्र बना देते हैं। कितनी अच्छी बात है न यह। मैंने इससे पहले आपसे कहा है कि यदि आप स्टूडेंट हैं, तो आप एक 'ज्ञानवीर' हैं, ज्ञान के योद्धा हैं। आप विचार कीजिए कि एक योद्धा को कितनी अधिक सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। नकारात्मक ऊर्जा हमें भगोड़ा बनाती है। यह हमारे मन को ही दुखी नहीं करती, बल्कि हमारे शरीर को भी बीमार करती है। जब कोई आपसे आपके बारे में निगेटिव बात कहता है, तो आपको कैसा लगता है इसका अनुभव आपको है क्या आप ऐसे निगेटिव लोगों के साथ रहकर अपनी पढ़ाई अच्छे से कर पाते हैं, निश्चित रूप से आपका उत्तर होगा कि मुझे ऐसे लोग पसंद नहीं आते। उनकी बातों मेरा मनोबल कम होता है। मैं तनाव में चला जाता हूं। मैं ऐसे लोगों के साथ रहना नहीं चाहूंगा। आपका उत्तर होना भी यही चाहिए। यह तो हुई लोगों की बात स्थानों के बारे में आपकी राय क्या है, आपको चाहिए कि आप अपनी पढ़ाई-लिखाई वाले स्थान को साफ-सुथरा रखें।
उसे व्यवस्थित रखें। वहां हवा और प्रकाश आने दें। अपनी आलमारी और दराज से फालतू की चीजों को हटाते रहें और यह भी देखते रहें कि आपकी टेबल और किताबों पर धूल जमने न पाए, यानी झाड़-पोंछ भी करते रहें। साथ ही खुद को भी साफ-सुथरा रखें। कपड़े धुले हुए हों। जूतों में पालिश होती रहे। नहाकर पढ़ने बैठने से एक अलग ही तरह की ताजगी का एहसास होता है। ऐसा करके आप अपनी सकारात्मक ऊर्जा को काफी बढ़ा सकते हैं। यह सकारात्मक ऊर्जा हमारे मस्तिष्क की ग्रहण शक्ति को काफी बढ़ा देती है। दरअसल, मुश्किल यह है कि स्टूडेंट्स को लगता है कि हमारा काम केवल पढ़ाई करना है और वे इस काम में दिन रात लगे भी रहते हैं। लेकिन जब उन्हें अपनी उम्मीद के अनुसार परिणाम नहीं मिलता, तो वे निराश हो जाते हैं। आपको इसी निराशा को संभालने का गुर सीखने की जरूरत है। फिर देखिए, कामयाबी कैसे नहीं आपको मिलती है। इससे जीवन में जो सकारात्मकता आएगी, सो अलग।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य शैक्षिक स्तंभकार मलोट