विषय आमंत्रित रचना - मानसिक समस्या........
विषय आमंत्रित रचना - मानसिक समस्या........
जानने और मानने में जैसे अंतर है,वैसे ही हम कैसे हैं और कैसे दिखाने की कोशिश करते हैं,में अंतर है,लेकिन हमें प्रयासरत रहना चाहिए कि हम पारदर्शी हो,हमारे दिखने और होने में एकरूपता हो,हम दिखने और होने में जब तक एकरूप नहीं हो पाएंगे, तब तक हम अनेकों समस्या से युक्त रहेंगे व सही से उतने ही दूर रहेंगे।
जिससे अब तक कितने लोग मानसिक समस्या के चक्कर मे होने और दिखने के अंतर के कारण भटक रहे हैं,अब तो इस भटकन से विराम मिले, बहुत थक गए हैं , क्योंकि मौत से ज्यादा भयभीत दुनियां मौत की आहट से है । वर्तमान की समस्या से अधिक चिंतित आने वाले कल से हैं । कमोबेश हर प्राणी की यही कहानी है,यही हकीकत है । हम इस सच्चाई को जीवन में सही से आत्मसात कर सकें इसकी बङी जरूरत है । आज के समय में हम देखते है कि छोटे - बड़े सभी मानसिक समस्या से जूझते आ रहे है ।
अतः इस समस्या से हमारे सामने कई गलत परिणाम भी आ रहे है।वास्तव में देखा जायें सुख तो नितांत भीतर की चीज है ।वह हमें तभी सही से मिल सकता है जब हमारे मन में किसी चीज की आकांक्षा नहीं रह जाए । हमको स्वाभाविक रूप से जो कुछ मिलता है वह मिले तो कोई समस्या नहीं परंतु किसी चीज की प्राप्ति का अभिलाषी होना अपने सुख और आनंद को खोना है। संसार मे हर मनुष्य का अपना दृष्टिकोण होता है और वह उसे उसी के अनुरूप देखता भी है ।
एक स्त्री को पिता अपनी पुत्री के रूप में देखता है वह उसे 25 वर्ष की आयु में भी बालिका ही दिखती है ,पुत्र चाहे कितने भी बड़े पद पर आसीन हो जाए माता-पिता के लिए तो वह अबोध बालक ही रहता है , ऐसे ही स्त्री को भी भाई - बहन की दृष्टि से देखता है , वहीं जब विवाह के लिए लड़के वाले उसे देखने आते है तो उन्हे वही बाला बहु के रूप में दिखाई देती है और तभी वे निर्णय कर पाते हैं।
ऐसे ही किसी आलोचक को हमारे हर कार्य मे कसर ही दिखाई देती है , भले ही हमारा कार्य कितना भी बढ़िया क्यों ना हो दुनियां चाहे कितना भी उसको सराहे लेकिन आलोचक उसमे आपके कोई ना कोई कमी जरुर निकाल ही देता है , इसका दूसरा पहलू यह भी है कि यदि हम आलोचक के कहे अनुसार उसमे अपना सुधार कर लेते हैं तो वो सोने पर सुहागा हो जाता है , फिर हम बेधड़क होकर उस कार्य का प्रदर्शन कर सकते हैं क्योंकि हमने उसको आलोचक के दृष्टिकोण से भी देखा है।
एक घटना प्रसंग - एक बार एक कस्बे के स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे की माँ जो मध्यांतर में उसे स्वयं प्रायः भोजन खिलाती थी । एक दिन वह किसी कारण वश उसे भोजन खिलाने में असमर्थ थी तो उसने स्कूल में किसी अध्यापक को कहा कि भैया मेरे पुत्र को ये भोजन दे देना तब उस अध्यापक ने उससे पूछा कि बहन मैं उसे पहचानूंगा कैसे , माँ तपाक से बोली भैया पूरे स्कूल में जो सबसे सुंदर लड़का है वही मेरा बेटा है और नाम बताकर वह चली गई ।
मध्यांतर में जब नाम से उसने उसको पुकारा तो उसके सामने एक काला कलूटा लड़का खड़ा था, जो लड़का दुनियां के लिए तो काला और बदसूरत था वही उसकी माँ के लिए संसार का सबसे सुंदर लड़का था।इसी प्रकार से हमारा किसी से विवाद हो जाता हैं उसके बाद वह किसी से चाहे कैसी भी बात कर रहा हो हमको यही लगेगा की वह मेरी ही बुराई कर रहा है बस यही दृष्टिकोण का कमाल हैं । हम गलत जगह पर बैठकर चाहे केसर युक्त दूध ही क्यों नहीं पी रहे हों पर लोग तो यही समझेगें की हम गलत पेय का सेवन कर रहे हैं।इसी दृष्टिकोण के चलते अनेको घर उजड़ गए हैं या कोई कुछ ही कर बैठे हैं आदि - आदि ।
हमारा किसी के प्रति एक बार जैसा दृष्टिकोण बन जाता है (अच्छा या बुरा ) वो बहुत ही मुश्किल से बदल पाता है। अतः हम अपने दृष्टिकोण को निष्पक्ष रखे जो वास्तविकता में है उसे वैसा ही देखने का प्रयास करें ,क्योंकि इंसान जितना हल्का होता हैं उतना ही वह ऊपर उठता हैं पर हमारा समूचा जीवन अति अपेक्षा से भरा है। भोजन-मकान-वस्त्र आदि तो न्यूनतम आवश्यकताएँ है।शिक्षा-चिकित्सा आदि की सुविधा भी चाहिए पर जब यह अति हो जाए तो सभी समस्याएँ आती हैं।उसमें मानसिक समस्या प्रमुख है ।
सोने के महल में भी आदमी दुखी हो सकता है यदि पाने की इच्छा समाप्त नहीं हुई हो और झोपड़ी में भी आदमी परम सुखी हो सकता है यदि ज्यादा पाने की लालसा मिट गई हो । इच्छा की अनन्तता ही प्राणी को दुखी करती है इसलिये सन्तों के पास अपनी कोई इच्छा नहीं होती है और कोई भी बात का हम ज़िक्र करे तो कहते है की प्रभु की जो मरजी हो वह मेरी इच्छा । इस इच्छा में शांति है इसलिये सन्त होते है और हमें समझाते हैं ताकि हमारी इच्छाओं पर सही से अंकुश हो वह हम मानसिक समस्या व सभी तरह कि किसी भी समस्या से जीवन में नहीं घिरे ।
वर्तमान में योग को शारीरिक, मानसिक व आत्मिक स्वास्थ्य व शांति आदि के लिए बड़े पैमाने पर अपनाया जाता है ।योग व्यायाम का ऐसा प्रभावशाली प्रकार है, जिसके माध्याम से हम न केवल शरीर के अंगों बल्कि मन, मस्तिष्क और आत्मा आदि में सही से संतुलन बना सकते है । हम नित्य कुछ समय के लिये ध्यान अवश्य लगायें तो हमारा मन स्थिर होगा,शरीर के चारों तरफ़ एक सुरक्षा कवच जैसे घेरा बन जायेगा और हम मानसिक समस्याओं आदि से मुक्त होंगे और इससे आगे भी बच जाएँगे।
हम सबको अपने जैसा समझकर , सबके प्रति अनुकम्पा भाव रखते हुए सदैव सभी समस्या से दूर रह सकते हैं। यही कारण है कि योग से शरीरिक व्याधियों के अलावा मानसिक समस्याओं से भी निजात पाई जा सकती है। इस तरह और भी अनेक प्रयोग से मानसिक व सभी तरह कि समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है । वह हम हमारे जीवन में सदैव प्रसन्न रह सकते है । प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)