बैठा-बैठा सोच रहा था

Aug 12, 2024 - 08:43
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बैठा-बैठा सोच रहा था
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बैठा-बैठा सोच रहा था बैठा-बैठा मैं सोच रहा था

साथ में एक सोच में दबोच भी रहा था कि खनन से आच्छादित मेरे क्षेत्र में न जाने इन्सान ने कितने पत्थरो को तराश कर कितने - कितने भगवान बना दिये लेकिन वह खुद के मन को आज तक वह तराश नहीं सका है जो की सबसे महत्वपूर्ण काम है । हमारे जीवन की प्रतिमा को सुन्दर और सुसज्जित बनाने में सुख और दुःख आभूषण के समान है ।

इस स्थिति में सुख से प्यार और दुःख से घृणा की मनोवृत्ति ही अनेक समस्याओं का कारण बनती है और इसी से जीवन उलझन भरा प्रतीत होता है ।अतः जरूरत है इन दोनों स्थितियों के बीच संतुलन स्थापित करने की , सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की। यह सत्य है कि कभी टूटते हैं ,कभी बिखरते हैं , विपत्ति में इंसान ज़्यादा निखरते हैं।

चुनौतियाँ हमें तराशती हैं ,तकलीफ़ों में भी ज़िम्मेदारी आदि समझाती हैं ।हमें एक नए रूप में ढलना और आत्मविश्वास के साथ हर परिस्थिति में डटे रहना सिखाती है जिससे फिर मुसीबतों में हम नहीं घबराते हैं । उमंग के साथ कठिनाइयों को जीवन में सौग़ात बना लेते हैं ।

यथार्थत हो गर विकास की भावना मन में तो जिन्दगी अवश्य बदलेगी और चुनौतियाँ भी हार के अपना सर झुकायेंगीं इसलिये जटिल स्तिथियों को सहर्ष स्वीकारना सफलता का सोपान हैं जो कि जीवन रुपान्तरण का सशक्त आयाम है ।इसलिये कहा है कि अगर खुद के मन को भी इन्सान तराश ले तो शायद भगवान का भी भगवान वह खास बन जाये । यह बात गहन चिन्तन करने योग्य है। प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)