नाना महावीर चक्र विजेता. कांच की गोलियों से खेलने वाला मुख्तार ऐसे बना खूंखार अपराधी
बचपन में कांच की गोलियों से खेलने वाला जवानी की दहलीज लांघते ही बंदूक की गोलियों से खेलने लगा. ना सुनना उसे सख्त नापसंद था, उसकी दहशत इस कदर थी कि कोई उससे आंख मिलाने की जुर्रत नहीं करता था।
गैंगबाजी और गुंडागर्दी उसके गर्व और गुरूर का सबब बनी. सियासत उसे विरासत में मिली, लेकिन उस विरासत को अपराध की काली दुनिया में बदलकर रख दिया. उसके रास्ते में जो भी आया, हमेशा के लिए हटा दिया. मुख्तार अंसारी के भाई अफजल के खिलाफ 2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी नेता मनोज सिन्हा को वोट देने वाले लोगों के साथ मुख्तार ने जो किया, वह अपने आप ही दहला देने वाला था. डॉन ने हाथ खड़े करवाए कि किसने बीजेपी को वोट दिया, जिन लोगों ने हाथ खड़े कर दिए, उनके हाथ के बीचोंबीच निशाना साधकर गोली मार दी गई. यह आतंक की नई खूनी लिखावट थी।
कांच की गोलियों से ज्यादा बारूद की गोलियों से खेलने की सनक दिमाग पर ऐसी चढ़ी कि पांच बार विधायक रह चुके इसी भाई ने अफजाल अंसारी को 2002 में हराने वाले कृष्णानंद राय को भी 2005 में रास्ते से हटवाया. तब बीजेपी महासचिव रहे मौजूदा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कई हफ्तों तक कृष्णानंद राय की हत्या के खिलाफ धरना दिया था. इतना ही नहीं यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब सांसद थे तब उनको भी मुख्तार ने भरी संसद में आंसुओं से रोने को मजबूर कर दिया था।
गाजीपुर के मोहम्मदाबाद युसुफपुर में 1963 में पैदा यह शख्स सियासत का चोला ओढ़े अपराध की दुनिया का सबसे क्रूर चेहरा था. संगीन अपराधों की शायद ही कोई धारा मुख्तार अंसारी से अछूती रह गई हो. अंसारी के पास क्राइम की हर वह डिग्री मौजूद थी, जो उसे अपराध की काली दुनिया का सबसे बड़ा विलेन बनाती थी. रसूखदार परिवार में ऐसा दुर्दांत हत्यारा और माफिया कैसे पैदा हुआ यह अपने आप में राजनीति अंडरवर्ल्ड कि स्याह हकीकत का बदसूरत चेहरा है।
यकीन करना मुश्किल होगा, जिसके दादा डॉक्टर मुख्तार अहमद अंसारी ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हों, जिसके पिता गाजीपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के इज्जतदार बड़े नेता रहे हों, जिस शख्स के नाना महावीर चक्र विजेता ब्रिगेडियर उस्मान रहे हों, जिसका बड़ा भाई अफजाल अंसारी कभी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं में शुमार रहा हो, उस मजबूत और मशहूर सियासी विरासत में पले-बढ़े नौजवान ने कैसे और क्यों अपराध की दुनिया को चुना और कब शूटर से गैंगस्टर और फिर माफिया डॉन बन बैठा।
दरअसल, कॉलेज में किताब के बजाय खेलकूद और हथियारों से लगाव लंबे कद काठी का मुख्तार अंसारी बचपन से ही दबंग था. यह 70 का दशक था, सरकार ने पूर्वाचल के पिछड़े इलाकों को विकास की पटरी पर दौड़ाने के लिए कुछ योजनाओं की शुरुआत की थी. तमाम लोगों के लिए माहौल और मौका दोनों था. युवाओं के बीच पैसा कमाने की ललक ने इन्हें ऐसी लालच और लालसा पैदा कि यह जमीन कब्जाने से लेकर ठेकेदारी हथियाने तक के खेल किताब कलम के बजाए कट्टे और हथियारों से करने लगे।
गोरखपुर में तिवारी बनाम शाही के गैंगवार में गाजीपुर से कई लोग शामिल हुए थे. गोरखपुर का वह मॉडल यहां भी पहुंच गया. कहते हैं इसी दौर में मुख्तार अंसारी की कॉलेज के दिनों में साधु सिंह से दोस्ती हो गई और वह मकनू सिंह गैंग से जुड़ गया. इसी बीच 1980 में सैदपुर में एक प्लॉट को लेकर मकनू सिंह और साहिब सिंह गैंग के बीच खूनी संघर्ष शुरू हुआ. तब मुख्तार अंसारी भी अपराध की दुनिया में एंट्री कर चुका था। कॉलेज के दिनों में ही उसकी अचूक निशानेबाजी के किस्सों ने उसे गैंग का चहेता बना दिया।
उसपर से उसकी असाधारण लंबी कद-काठी यहां से अलग पहचान दे रही थी, बस यहीं से मुख्तार के सियासी के बजाय शातिर शूटर का आपराधिक सफर शुरू हो गया. कहते हैं इस दो धूर की जमीन के लिए इतनी लाशें गिरीं कि उन्हें गिनना मुश्किल था, उस वक्त खूनी संघर्ष में दो परिवारों के बीच पुरुष ही नहीं बचे थे सिर्फ विधवाएं ही गिनी जा सकती थीं। 1988 में मुख्तार तेजी से अपराध की दुनिया में अपने पांव पसार रहा था. इसी बीच मोहम्मदाबाद में मंडी परिषद के ठेकेदारी को लेकर वहां के एक ठेकेदार सच्चिदानंद राय की हत्या हो गई।
मुख्तार का पहली बार किसी संगीन अपराध में नाम आया और उसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ फिर थमा ही नहीं. इसी दौर में मुख्तार पर उसके विरोधी त्रिभुवन सिंह के भाई सिपाही राजेंद्र सिंह की हत्या का भी आरोप लगा. कहा तो यह जाता है कि बेखौफ मुख्तार ने पुलिस वालों के बीच राजेंद्र सिंह की हत्या कर दी. उस वक्त त्रिभुवन सिंह और बृजेश सिंह अपराध की दुनिया में दोस्ती की मिसाल कहा जाते थे. बस यहीं से मुख्तार अंसारी और बृजेश सिंह की दुश्मनी शुरू हुई और दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए।
सरकारी ठेकों को लेकर बृजेश सिंह और मुख्तार अंसारी के बीच वर्चस्व की लड़ाई छिड़ गई। गैंगवार अब इस इलाके की अलग पहचान थी. मुख्तार अंसारी अब मामूली शूटर नहीं रह गया था. मकनू सिंह और साधु सिंह गैंग की शागिर्दी में मुख्तार गैंग चलाने के गुर भी सीख चुका था. 1985 से उसके बड़े भाई अफजाल अंसारी मोहम्मदाबाद विधानसभा सीट से विधायक बनने जा रहे थे, जिससे उसे राजनीतिक संरक्षण मिल रहा था. मुख्तार की धमक अब गाजीपुर की सीमा को लांग वाराणसी, जौनपुर और आजमगढ़ तक हो चुकी थी।
1991 में ही कांग्रेस नेता अवधेश राय की हत्या हो गई. जोकि पूर्व विधायक अजय राय के बड़े भाई थे. इस हत्याकांड ने पूर्वांचल में गैंगवार छिड़ने की आशंका ने सबको दहशत में ला दिया, क्योंकि इस हत्या में भी मुख्तार का नाम आया. अब मुख्तार की पहचान अब सुपारी किलर की हो चुकी थी। सरकार किसी की भी हो मुख्तार अंसारी की दहशत बरकरार थी।
1991 में जब भाजपा की कल्याण सिंह सरकार थी मुख्तार पर दो पुलिसवालों को गोली मारकर फरार हो जाने की खबर आई थी. तब मुख्तार के गाजीपुर और मोहम्मदाबाद के घर पर पुलिस प्रशासन ने दबिश भी दी थी. वह काफी दिनों तक अंडर ग्राउंड भी रहा और उसे अपने एनकाउंटर का डर सता रहा था, लेकिन जैसे ही सत्ता बदली मुख्तार सियासत में उतरने की तैयारी में लग गया, क्योंकि अब उसे लगने लगा था कि अगर वह सियासी चोला नहीं ओढ़ता है तो उसका बच पाना मुश्किल हो जाएगा और उसके काले कारोबार का काला साम्राज्य भी मिट जाएगा।
बस यही से उसकी जिंदगी ने करवट ली और लोकतंत्र का सबसे क्रूर मजाक देखिए कि 1996 में मुख्तार मुस्लिम बहुल क्षेत्र मऊ विधानसभा सीट पर जेल से विधायक बन गया और फिर उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।