जीवन का हिसाब
जीवन का हिसाब
पहले भारतीय परिवारों में संयुक्त परिवार की परंपरा थी लेकिन आज विडंबना है कि एकल परिवारों का चलन निकल पड़ा है जो कि पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर प्रथक रहकर आजादी से रहने में शान समझते हैं। आज के युवा अंग्रेजी की मोह माया से निकल नहीं पा रहे है और अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते हैं ।
यह कैसी विडंबना है जिसने इस दुनिया का हमे आभास कराया , अपनी सभी निजी खुशियों को ताक पर रख बच्चों की हर मांग को पूरा करने की कोशिश की, पर बड़े होते ही वे ही बच्चे आपने हमारे लिए क्या किया यह तो आपका फर्ज था कहते हुए वृद्धाश्रम में भेजते हुए संकोच नहीं करते उस समय वे अपना फर्ज भूल जाते है ।इस सबकी आपाधापी में हमने जिसके लिए जन्म लिया है वह सब भूल जाते हैं और इस मायाजाल के चंगुल में फंस कर अपने कर्मों को बांधते रहते हैं।
भौतिकवाद, अर्थ, पद, प्रतिष्ठा एवं सांसारिक के चक्कर आदि में हम हमेशा उलझें ही रहतें है और धर्म - ध्यान, तपस्या आदि की बात आये तों हम कल के भरोसे छोड़ देतें है । जीवन हम सबका छोटा सा हैं । हमारी उम्र औसतन ८० वर्ष की हैं । उसमें से आधा हमारे चालीस वर्ष पूर्ण परिपक्वता पाते-पाते बित जाते है । अब आगे बचे वर्ष चालीस। उसके आगे के मौज-मस्ती में वर्ष बीस बीत जाते हैं ।अब बचे केवल बीस वर्ष । जो हमारे द्वारा पारिवारिक जिम्मेदारियों, झंझटों, बच्चों को settle करने आदि में बीता दिए जाते हैं । यह सब करने के बाद भी हम शांति का सही से जीवन जी नहीं पाते हैं ।
आज भी इस दुनिया में बहुत से श्रवण कुमार हैं ।धन्य हैं वे सन्तानें व भागयशाली हैं वे मॉं-तात भी जिनको यह सुख मिलता हैं । इसके विपरीत देखा है हमने बहुतों के लिए तो यह ( बचे हुए बीस वर्ष ) जीवन का बेहद अशांति का काल होता है ।अतः हम समय में सें समय सही से निकालकर आध्यात्मिक की और अग्रसर होकर नित्य त्याग, तपस्या, स्वाध्याय , साधना आदि करतें हुवें इस दुर्लभतम मनुष्य जीवन का पूरा सार निकालते हुवें हम अपने परम् धाम की और अग्रसर हों। प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)