आमंत्रित विषय रचना -युवा पाश्चात्य संस्कृति की और

Mar 18, 2024 - 21:32
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आमंत्रित विषय रचना -युवा पाश्चात्य संस्कृति की और
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आमंत्रित विषय रचना -युवा पाश्चात्य संस्कृति की और

आज की युवा पीढ़ी का झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की और हो रहा है उसके पीछे हम बच्चो से ज्यादा जिम्मेदार है । भौतिक पदार्थों की चकाचौंध में फंसकर युवा क्या हम सब महत्वाकांक्षी होकर आपाधापी के भंवरजाल में भटकता रहता है और दुःखों को प्राप्त करता है।

भावनाओं में सन्तुष्टि नही होती और और कि इस आपाधापी में सुख और शान्ति को लील जाती है ।विषय प्रदाता के भावों को लेते हुए फ़ुर्सत नहीं है किसी को भी पल भर की इस दुनियाँ में अन्धी दौड़ जो लग रही है आगे बढ़ने की ।भौतिकता की । शानोशौक़त की ।तो अपने को दूसरे से श्रेष्ठ साबित करने की ।

नहीं फ़ुर्सत किसी को भी कही भी ठहरने की। देखो जिसको आगे भागने को है आतुर ।भूल ही गया पीछे मुड़ देखना है भी । मशीनी सी हो गयी है सबकी ज़िंदगी । घड़ी की सूई से बंधी है ज़िंदगी ।नही नज़र आ रहा क्या पीछे छूटता जा रहा है ? फ़ुर्सत नहीं तो आँकलन करे बीती ज़िंदगी की । धीरे -धीरे यह रिश्ते सूखते जाते है ।बेरुख़ी और नज़रंदाज़ की वजह से ।सब अपने अपने दायरे में सिमटते जाते है ।

जब हमने खायी ठोकर या आ बुढ़ापा हुआ खड़ा । शरीर और ताक़त भी अब मुँह बिदकाने लगी है ।तब सारे रिश्ते ,बातें और अपनों की याद सताने लगी है ।अब फ़ुर्सत थी पर जिनकी ज़रूरत थी उनको नहीं अब फ़ुर्सत है। भीड़ में भी एकाकी था वह अपने ही सपनो की दुनियाँ में खोया था । अकेला ही रहा नहीं एकांत मिला । वह मिलता तो कुछ अपने से रूबरू होता | बंद आँखो से बस इस दुनियादारी और इच्छाओं में फँसा रहा ।

नहीं फ़ुर्सत हमने क्या किया और क्या पाना है ? असल में लक्ष्य क्या ज़िंदगी का है ? फ़ुर्सत नहीं थी एकांत में बैठ निज से बात करने की ।अब रोने से क्या होता | ज़िंदगी की लगाम को रखते हाथ । कुछ एकांत में खाते ज़िंदगी को सम्भालते क्या खोया या पाया? हिसाब कलम का सार निकालते तो नहीं ये नौबत पछताने की या हाथ मसलते रहने की नहीं आती । फ़ुर्सत नहीं थी कही भी मुड़कर देखने की । एकांत में ख़ुद के साथ जीने की।गतिशीलता और परिवर्तन हर सुख शान्ति कामूल है जो हम अंतर्मुखी होकर ही सुख शांति पा सकते हैं ।

पाप धोने वाली पवित्र गंगा आज स्वयं ही मैली हो गई है। आवश्यकताएं आकांक्षाओं की साथ में घनिष्ठतम सहेली हो गई है। गमले मे लगे फूलों की सही पहचान भी मुश्किल है आज तो क्योंकि भौतिकता की चकाचौंध मे जिन्दगी भी एक पहेली हो गई है । वर्त्तमान में भौतिक संसाधनों के भोग में व्यस्त लोगों में संवेग के झरने सूख रहे हैं ।

औरों की खुशी में शामिल होना या व्यथा में अंतस से दुःख को समझना ये अब बेगाने हो रहे हैं । कल तक संयोग और वियोग में जो गम और खुशी के बादल छा जाते थे । अब हम अधिकतः मात्र औपचारिकता के लिए बच गए हैं ।इसका ये अर्थ नहीं कि लोगों में मोह कर्म क्षीण हो रहा है ।वरन् उसका route divert हो रहा है ।पदार्थवादी युग ने भोग-विलास को जन्म दिया है । फलतः मोह के पथ ने अब राग-आसक्ति लोभ और कुटिलता का रूख लिया है । भौतिक सुविधाओं ने इंसान को मदान्ध कर अपना शिकार बना लिया है ।

हिंसा ,निंदा, द्वेष के पंजों ने प्रायः सबको नोच लिया है । प्रेम-दया जैसी संवेदनाओं के स्रोत अब कहीं-कहीं बहते हैं । हर ओर कलह-दगा-प्रतिशोध के दंगे होते हैं । भूल गए लोग कृतज्ञता का भाव, स्नेह-आदर-मान का है पूरा अभाव ।प्रायः दृष्टिगोचर हैं आँखों की नमी अब रही नहीं । प्रमोद भावना अब कहाँ कहीं ।समय बदल रहा है या हम ? जो भी है क्या सही है ये परिवर्तन ? एक विराट प्रश्नचिन्ह है करें चिन्तन । मोह कर्म से परे या उसके बहुत नज़दीक जा रहे हम ? करुणा,प्रेम,आदर जैसी संवेदनशील मनोभावनाओं को आचरण में हम नहीं ला रहे है । जन्म लेते ही शुरू हो जाती है हमारे धड़कनों की टिक टिक।जितना आयुष्य है उतने श्वासों की टिक टिक।

एक एक कर श्वास कम होता जा रहा है । मृत्यु की तरफ चरणन्यास शुरू हो जाता है ।पर कब हम वे धड़कने सुन पाते हैं। संसार के मोह जाल में व पाश्चात्य संस्कृति की और हम फंस आनंद मानते हैं। राग -द्वेष के इस दुर्लभ बंधन में जकड़े रहते हैं। सौ सुनार के वार धीरे -धीरे लगते हैं। पर जिस दिन लौहार का वार पड़ता है। श्वासों का खजाना खूट जाता है। इह भव पूर्ण कर नया जन्म पाता है। यही जन्म - मरण का सिलसिला निरन्तर चलता है।

जब तक मोह कर्म का साथ रहता है। जीवन के होते है दो पक्ष एक भौतिक व दूसरा आध्यात्मिक ।एक स्वार्थ का मार्ग व दूजा है परमार्थ का । एक अधोगमन का दूजा ऊर्ध्वगमन का । एक भौतिक सुख और सुविधा का । दूसरा आत्मिक शांति एवं सही से आत्मनमन का । जब भौतिकता का स्वर हो जाता है बहुत ज्यादा तेज तब हमारे कान नहीं सुन पाते है आध्यात्म की कोई आवाज । हम उलझ जाते है भौतिकता युक्त कोलाहल के गीतों की धुन में वह निष्क्रिय हो जाते है धर्म के सारे साज। हमें अपने मार्ग को बदलना होगा व आत्मकल्याण के पथ पर चलना होगा। प्रदीप छाजेड़

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