संपन्नता भली मन की ही
संपन्नता भली मन की ही
आज के युग में छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सभी सफलता प्राप्त करना चाहते हैं। आर्थिक सम्पन्नता के साथ मानसिक संतुष्टि भी सफलता के लिए जरूरी है ।केवल मन के चाहने से मनचाही इच्छा पूरी नहीं होती है ।
विज्ञान की तरक्की के कारण अन्धाधुन्ध पैसा कमाने की दौड में आजकल व्यक्ति भौतिक संपन्नता की और उन्मुख है । संपन्नता साधनों से नहीं मन की संपन्नता बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होती है । लक्ष्मी चंचल हैं किंतु जो सद्दगुणी हैं उसे प्रभावित नहीं करती हैं वह मानव शालीन और सम्पन्न हैं ।
व्यक्ति के सुखी होने की परिभाषा उसकेआर्थिक एवं भौतिक सुख से परिभाषित नही हो सकती है वह सिर्फ उसकी मानसिकता पर निर्भर करती है । महलों में रहनेवाला व्यक्ति नींद की गोली लेकर रात को सोता है और खुले आकाश में सोनेवाला गहरी नींद आराम से सोता है । साधनों की सम्पन्नता से मख़मली पलंग ख़रीद सकते हैं नींद नही ।
छप्पन भोग पा सकते हैं भूख नही । आनंद हैं संतोष में समता में आत्म रमण में माना कि आज के समय में सम्पन्नता महानता नही जीवन की life-line यानी संजीवनी ज़रूर हैं ।धन-सम्पदा अपने श्रम, सत्य,निष्ठा से अर्जित होती हैं पर साथ में निरभिराम उदारवृति, परोपकारिता की ऊँचाइयाँ महानता को चिरस्मरणीय बना देती हैं।
जन्म हमें पूर्व के कर्म संस्कारोंके अनुरूप मिलता है हम स्वतन्त्र नहीं है कहाँ और कैसा पाएं लेकिन जीवन हमारे पुरुषार्थ पर निर्भर है । हम सम्यक पुरुषार्थ के द्वारा अपने जीवन के कोरे पन्ने को जैसा चित्रित करना चाहे वैसा कर सकते हैं और मृत्यु भी हमारी उसीके अनुरूप परिणामो से होगी । हम अपनी गति प्रशस्त भी कर सकते है अगली और दुरुपयोग वर्तमान जीवन का करके गति को बिगाड़ भी सकते हैं।हमारे सम्यक चिंतन से हमारे भीतर सभी मंगलभावनाओं का विकास होता है।हम सब मंगल भावनाओं से भावित होते हैं तो हम स्वस्थ शरीर,मन ,वाणी से भी रहते हुए प्रसन्न रहकर जीवन को सफल व समुज्ज्वल बना सकते हैं।
हम ये न सोचें कि हमारे कर्मों के अनुसार हमें भोगना ही होगा बल्कि ये सोचे कि हम कर्मों की उदीरणा करके अपने भव सीमित कर लें कम सेकम और निकाचित कर्म इस मध्य हमारे पुरुषार्थ से ठीक हमें अनुरूप फल न मिलने दें तो हम समभाव में रहकर सभी परिस्थिति को सहन करें और न हायतोबा मचाकर और नए कर्म न बांधें । सिर्फ हमारी प्रसन्नता और स्वस्थ मानसिकता , स्वस्थ भाव सबसे बड़े हमारे सम्पन्नता और विपन्नता के मध्य सूचक बनते हैं।
धन आदि भौतिक वस्तुएं हमारी आवश्यकता की पूर्ति करने तक ठीक है लेकिन उसके बाद असीम आकांक्षाओं का रूप लेकर हमें अपने सम्यक रास्ते से दूर ले जाती है और तृष्ना बनकर हमे भव भवान्तर में भटकाती है तो हम विवेकशील मनुष्य जीव कम से कम इस तृष्णात्म्य जीवन से बचकर अपना सही से अवश्य आत्मकल्याण करें और जीवन को सफल बनायें।क्योंकि धन की संपन्नता अहंकार देती है जबकि इसके विपरीत मन की संपन्नता पवित्र संस्कार देती है । प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़)