विषय आमंत्रित रचना -जैन धर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान

Oct 2, 2023 - 13:39
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विषय आमंत्रित रचना -जैन धर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान
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विषय आमंत्रित रचना -जैन धर्म का भारतीय संस्कृति में योगदान

जैन धर्म तथा भारतीय संस्कृति दोनों एक दूसरे के साथ जुड़े हुए है । जैन शब्द जिन शब्द से बना है। जिन बना है 'जि' धातु से जिसका अर्थ है जीतना। जिन अर्थात जीतने वाला। जिसने स्वयं को जीत लिया उसे जितेंद्रिय कहते हैं। जिन परम्परा' का अर्थ है -

 'जिन द्वारा प्रवर्तित दर्शन'। जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं। 'जिन' शब्द बना है संस्कृत के 'जि' धातु से। 'जि' माने - जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने राग - द्वेष को जीत लिया या मन वचन काया को जिन्होंने जीत लिया और विशिष्ट आत्मज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान केवल ज्ञान को प्राप्त कर चार तीर्थ की स्थापना की उन आप्त मानव को जिनेन्द्र या जिन कहा जाता है'।

जैन धर्म अर्थात 'जिन' तीर्थंकर भगवान्‌ के द्वारा बताया हुआ यह धर्म है । अहिंसा इस धर्म का मूल सिद्धान्त है। इसका जैन धर्म में बड़ी सख्ती से पालन किया जाता है व इसको खानपान आचार नियम आदि मे विशेष रुप से देखा जा सकता है‌। जैन दर्शन में कण-कण स्वतंत्र है इस सॄष्टि का या किसी जीव का कोई कर्ताधर्ता नही है। सभी जीव अपने अपने कृत कर्मों का फल भोगते है। जैन दर्शन में भगवान न कर्ता और न ही भोक्ता माने जाते हैं। कर्म आत्मा स्वयं कर्ता होती है । जैनधर्म की मान्यता के अनुसार आपकी आत्मा ही सत्प्रवृत्ति में आपकी मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी आत्मा आपकी दुश्मन है। सत्य समत्व अहिंसा विनय पुरुषार्थ निष्ठाश्रद्धा वीतरागता आदि ही आप को (

आत्मा ) भव - भवान्तर के चक्र से मुक्त कर परमात्मा बना सकती है। जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है। इन्हीं तीर्थंकरों की वाणी को सही से समझकर उसका अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है। अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, वचन आदि से कोई भी नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी भी जीव का किंचित् मात्र भी अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी कैसी भी अवस्था में हो , किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म: (

अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था।इसी तरह तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान व पुर्ववर्ति आचार्यों ने देश - विदेश में विचर कर धर्म के प्रति अटूट आस्था को मजबूती प्रदान की है । आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने पुरातनता और नवीनता को लेकर अनेक मंतव्य अपने साहित्य में प्रदान किए है। संतुलन के साथ हम सही चिंतन करे तो विकास भी नही रुकेगा और संस्कार भी सुरक्षित रहेंगे। आचार्य श्री ने इसमें लिखा है की नवीन को स्थान प्रयास निरन्तर करते - करते बनाना पड़ता है। पुराना होने मात्र ही वह अच्छा नहीं होता तथा नवीन होने मात्र से त्याज्य नहीं होता।भाव इसी प्रकार के लगभग थे exact words में खोजने का प्रयास करता हूं। इसमें दूसरी बात यह थी की कुछ नियम मौलिक होते है जो लगभग शाश्वत के समान ही है। कुछ नियम सामायिक और परिवर्तनशील आदि होते है। मौलिकता और परिवर्तनशीलता में जो सामंजस्य बैठा सकता है वह प्रगति पथ पर अग्रसर हो जाता है । और अपनी विरासत को भी सुरक्षित रख लेता है। तेरापंथ धर्मसंघ में तो अनेक परिवर्तन हुए है तथा समय की माँग के अनुसार और हो रहे है । जयाचार्य ने इसमें बहुत कुछ जोड़ा था ।

आचार्य तुलसी ने तो हर क्षेत्र में इतना जोड़ा और मौलिकता को सुरक्षित रखते हुए जोड़ा। आचार्य भिक्षु ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही मेरे उत्तराधिकारी चाहे तो काल भाव की परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन, परिवर्धन और संशोधन आदि कर सकते है।आचार्य भिक्षु द्वारा प्रदत तेरापंथ संघ व्यवस्था की पांच मौलिक मर्यादाओं में आज तक कोई परिवर्तन किसी भी आचार्य ने नही किया। इस तरह हम कह सकते है की जैन धर्म ने भारतीय संस्कृति के विकास में निरन्तर अकल्पनीय योगदान दिया है । प्रदीप छाजेड़ ( बोरावड़ )