विज्ञान से छंटेगा अंधविश्वास का अंधियारा

बिहार में पूर्णिया जिले के एक गांव टेटगामा में अंधविश्वास में अंधी भीड़ ने पांच निर्दोष जिंदगियों को निगल लिया। 'डायन' करार देकर एक ही परिवार के लोगों को जिंदा जला दिया गया। यह घटना केवल एक वीभत्स अपराध नहीं, बल्कि हमारे समाज में गहराई तक जड़ जमाए अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र और रूढ़िवादी मान्यताओं की डरावनी तस्वीर है, जो बताती है कि वैज्ञानिक प्रगति और सामाजिक चेतना के बीच अब भी एक बहुत बड़ी खाई मौजूद है।
आज जबकि विज्ञान ने हमें अति उन्नत प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष यात्रा, बायो इंजीनियरिंग और एआइ जैसे क्षेत्रों में पहुंचा दिया है, वहीं दूसरी तरफ समाज का एक बड़ा तबका अभी भी नींबू- मिर्ची, पुनर्जन्म और भूत-प्रेत जैसी बातों में यकीन करता है। यह विसंगति केवल अशिक्षित वर्ग में ही नहीं है। इसकी जड़ें हमारी सामाजिक संरचना में छिपी हैं, जहां वैज्ञानिक नजरिए को पर्याप्त तवज्जो नहीं दिया जाता। आजादी के बाद वैज्ञानिक नजरिए को बढ़ावा देने के लिए कई संस्थान और योजनाएं बनीं, किंतु वे समाज के सोच को बदलने में असफल रहीं। जिन तबकों को शिक्षा और समृद्धि नहीं मिली, वे चमत्कारों की आशा में अंधविश्वासों में चिपके रहे। और जिनमें समृद्धि आई, वे उसे खोने के डर से इन्हीं कुरीतियों का अनुसरण करते रहे। दरअसल, वैज्ञानिक दृष्टिकोण कोई जटिल दर्शन नहीं, बल्कि जीवन को तर्क, प्रमाण और विवेक के साथ समझने का तरीका है। यह नजरिया हमें सिखाता है कि किसी बात को तभी स्वीकारें जब उसके पक्ष में साक्ष्य हो। लेकिन हमारे समाज में जिज्ञासा को प्रोत्साहित करने के बजाय उसका दमन किया जाता है।
यही वजह है कि वैज्ञानिक नजरिए का अभाव सामाजिक जीवन को दिशाहीन बनाए हुए है। संविधान ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नागरिक का मौलिक कर्तव्य घोषित किया है। इसके बावजूद भारतीय विज्ञान कांग्रेस जैसे मंचों पर छद्म-वैज्ञानिक दावों की प्रस्तुति, मीडिया में तर्कहीन विचारों का प्रचार व समाज में पाखंडियों की स्वीकृति यह दर्शाती है कि वैज्ञानिक दृष्टि हमारे समाज की मुख्यधारा नहीं बन सकी है। इसलिए आज जरूरत है सामाजिक जागरूकता की, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचार की और यह समझने की कि जब हम विज्ञान को केवल तकनीकी लाभों तक सीमित रखते हैं और सोचने की स्वतंत्रता के रूप में नहीं अपनाते, तो हम विकास के नाम पर अंधेरे की ओर बढ़ते हैं। यह अंधेरा ही है, जिसने टेटगामा जैसे गांवों को आज भी 21वीं सदी के उजाले से दूर रखा है। हमें यह मानना ही होगा कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही वह रोशनी है, जो अंधविश्वास के इस अंधेरे से समाज को बाहर निकाल सकती है। जब तक हम अपने सोचने के ढंग को नहीं बदलते, तब तक ऐसी घटनाएं हमारे विकास की सच्चाई को कठघरे में खड़ा करती रहेंगी।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब