बढ़ता मृदा प्रदूषण, घटता उत्पादन
बढ़ता मृदा प्रदूषण, घटता उत्पादन
विजय गर्ग
मिट्टी के ऊपर भुरभुरा और स्नेहिल तत्त्व बीजों को अंकुरित कर और जड़ों को धारण कर हमारी धरती पर जीवन सुनिश्चित करता है। यह आज के दौर में आठ अरब लोगों के लिए खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित के करने, बिगड़ते पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन और जलवायु संकट को काफी हद तक कम करने का मजबूत संबल है। मगर आज प्राणियों के लिए पोषक मिट्टी का अस्तित्व खुद गंभीर संकट में घिरा है। मिट्टी का बड़े पैमाने पर क्षरण न केवल कृषि पैदावार और खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन की समस्या को और अधिक व्यापक तथा जटिल बना रहा है। मिट्टी के क्षरण के साथ उसकी उत्पादकता की कमी धीरे-धीरे बढ़ रही है, प्रदूषण के इतर इसका दायरा आधुनिक कृषि तरीकों के कारण दबे पांव फैल रहा है। मिट्टी की गुणवत्ता में कमी, जमा होता नमक और जहरीले रसायनों के संदूषण और फसल उत्पादन में आ रही कमी मृदा क्षरण के दायरे आते हैं। मृदा क्षरण आमतौर पर मौजूदा रसायनों (जिसमें खाद और जहरीले कीटनाशक शामिल हैं) के अंधाधुंध इस्तेमाल, भूमि के परंपरागत उपयोग में व्यापक बदलाव, जंगल की कटाई, बाढ़, सुखाड़, जलजमाव और जलवायु परिवर्तन से । तापमान आदि कारणों से पैदा होता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां खेती-किसानी आज भी अधिकांश लोगों के लिए जीविका का स्रोत है, दस लाख 78 हजार वर्ग किलोमीटर दायरे में फैले विश्व के दूसरे सबसे बड़े कृषि तंत्र की रीढ़ मिट्टी ही है।
मृदा क्षरण का गहराता संकट न सिर्फ पैदावार को प्रभावित कर रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के दौर में यह अनेक समस्याओं का कारण बन रहा है, जिनमें मुख्य रूप से पारिस्थितिकी असंतुलन भी शामिल है। मिट्टी सर्वेक्षण के राष्ट्रीय ब्यूरो के मुताबिक भारत में लगभग एक तिहाई मिट्टी के यानी लगभग 12 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र मृदा क्षरण के दायरे में है, जिसका अच्छा-खासा हिस्सा समुद्र के लवणीकरण से प्रभावित है। बड़े पैमाने पर मृदा क्षरण के बावजूद, तकनीक आधारित गहन कृषि कारण पैदावार में वृद्धि हुई और अब भारत कृषि उपज का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। वह खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर है। मगर बाढ़ के दौरान और निर्माण कार्य के लिए बड़े पैमाने पर मिट्टी के कटाव, रासायनिक खाद के व्यापक इस्तेमाल से जमा होती लवणता, बढ़ती अम्लीयता और जलभराव आदि से कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा भाग ऊसर होता जा रहा है। अगर इसी तरह मृदा क्षरण जारी रहा तो आने वाले वर्षों में खाद्य आयात करना पड़ सकता है, जबकि भारत, दुनिया के केवल 2.4 फीसद भूमि क्षेत्र के साथ, विश्व की 18 फीसद आबादी को खिलाने में सक्षम है। मृदा क्षरण के प्रमुख कारणों में अमर्यादित तरीके से खेती के अलावा बड़े पैमाने पर शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के लिए भूमि उपयोग में व्यापक बदलाव भी जिम्मेदार है। इसके साथ-साथ भारत मवेशियों की संख्या के लिहाज से भी सबसे बड़ा देश है। इनके चरने के दौरान जमीन की ऊपरी वनस्पति हटने से मिट्टी की ऊपरी परत कमजोर हो जाती है और यह वर्षा और हवा के कारण कटाव का शिकार हो जाती है। भारत जनसंख्या के लिहाज से विश्व का सबसे बड़ा देश है और डेढ़ अरब लोगों का पेट भरने के लिए जरूरी अनाज उत्पादन का दबाव कृषि पर लगातार बना हुआ है। साथ ही उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा रखरखाव और अक्षम प्रबंधन के कारण बर्बाद हो जाता है। इन सबका असर अंततः मिट्टी पर पड़ता है। आजादी के बाद अनाज की बढ़ती जरूरत और खाद्यान्न के लिए विदेशों पर निर्भरता को ध्यान में रखते हुए हरित क्रांति का प्रकल्प लागू हुआ, जो मुख्य रूप से कृत्रिम सिंचाई, रासायनिक उर्वरक कीटनाशक और संकर बीज पर आधारित था, जिसका मुख्य लक्ष्य था ज्यादा से ज्यादा अनाज का उत्पादन इस प्रयास में मिट्टी की उर्वरता नेपथ्य में चली गई। लगातार एक ही तरह की फसल उगा कर ज्यादा से ज्यादा अनाज पैदा किया जाने लगा, जिससे मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक पोषक तत्त्व कम होने लगे। इसकी उर्वरता को बनाए रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग से मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्मजीव और जैविक पदार्थ खत्म होते चले गए। वर्तमान में कृषि कार्य में 94 फीसद तक रसायनिक उर्वरक का उपयोग होता है। यहां तक कि रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग से हमारे खेतों और फसलों को जहरीला बना दिया। हरित क्रांति के दौरान हमारा अनाज उत्पादन पांच करोड़ टन से बढ़ कर तीस करोड़ टन पहुंच गया, पर यह उपलब्धि उपजाऊ मिट्टी की कीमत पर हासिल की गई प्रतीत होती है। ऐसे में मिट्टी का तेज गति से क्षरण भारत की बढ़ती जनसंख्या के लिए खाद्य सुरक्षा के गंभीर संकट का कारण बन सकता है। मृदा क्षरण के कारण न सिर्फ उत्पादकता में कमी आती है, बल्कि इसमें प्राकृतिक रूप से मौजूद कार्बन की मात्रा कम हो जाने से इसकी पानी सोखने और जकड़ कर रखने की क्षमता भी काफी हद तक घट जाती है। नतीजा यह कि पानी के स्रोतों से जल का पुनर्भरण काफी कम हो जाता है, जो भारत में बड़े स्तर के भूजल स्तर में गिरावट और सूखे की बढ़ रही समस्या के रूप में परिलक्षित हो रहा है। हरियाणा और पंजाब, जो भारत के सबसे अधिक अनाज उत्पादक हैं, वहां जल स्तर खरतनाक रूप से गिर चुका है। । समृद्ध और उपजाऊ मिट्टी कृषि प्रधान भारत के लिए वैश्विक आर्थिक उतार-चढ़ाव से सुरक्षित रखती है। तभी तो पिछले कुछ दशक में आई बड़े स्तर की वैश्विक मंदी में भी भारतीय अर्थव्यस्था मामूली असर के साथ तेजी से आगे बढ़ती रही। उर्वर मिट्टी आज के दौर में भारत जैसे देश के लिए न सिर्फ पेट भरने किए जरूरी, बल्कि अर्थव्यवस्था की धुरी है। ऐसे में जरूरत है कि मिट्टी की उर्वरता को प्राकृतिक तरीके से वापस लाया जाए। इसके लिए हमें मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक स्वास्थ्य को बहाल करने की आवश्यकता होगी, जो एक लंबी और जटिल, पर संभव प्रक्रिया है। अपने जैविक तत्त्व यानी कार्बन को खोकर ऊसर हो चुकी मिट्टी में दोबारा जैविकता लौटाने की जरूरत होगी। अभी कुल इस्तेमाल हो रहे उर्वरकों में केवल छह फीसद जैविक स्रोत वाले उर्वरक का इस्तेमाल हो है। जरूरत । है कि रासायनिक खाद पर निर्भरता कम कर जैविक खाद आधारित खेती-किसानी को प्रोत्साहन मिले। हालांकि इससे खाद्यान्न उत्पादन में कमी की आशंका शामिल है। भारत में | प्रकृति केंद्रित समृद्ध कृषि परंपरा रही है, जो मिट्टी की क्षमता, मौसम और पानी की उपलब्धता के सामंजस्य पर आधारित है। इसे पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। दबे पांव मिट्टी पानी का संकट हमारे खेतों से होते हुए हमारी थाली तक आ पहुंचा है। ऐसे में इस भीषण समस्या का संज्ञान लेने और सरकार, समाज तथा व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।
■ बच्चे तो बच्चे अभिभावकों को भी लगी मोबाइल की लत
बच्चे तो बच्चे अभिभावकों को भी मोबाइल फोन की लत लग चुकी है। माता-पिता और बच्चों का मजबूत रिश्ता बनाने में स्मार्टफोन बाधक बन रहा है। देश के 76 प्रतिशत बच्चे तो 84 प्रतिशत अभिभावक एक-दूसरे के साथ अधिक समय व्यतीत करना चाहते हैं. लेकिन स्मार्टफोन और इंटरनेट मीडिया उन्हें ऐसा करने से रोक रहे हैं। तभी 94 प्रतिशत बच्चे चाहते हैं कि उनके माता-पिता के स्मार्टफोन में कालिंग, मैसेजिंग और कैमरा जैसे सिर्फ तीन फीचर होने चाहिए। बच्चे नहीं चाहते हैं कि माता-पिता के स्मार्टफोन में इंटरनेट मीडिया, एंटरटेनमेंट और गेमिंग एप की सुविधा हो। दूसरी तरफ 75 प्रतिशत अभिभावक इस बात को लेकर चिंतित हैं कि उनके बच्चे स्मार्टफोन की लत की वजह से परिवार के साथ सार्थक रिश्ते नहीं बना पा रहे हैं। परंतु बच्चे और अभिभावक दोनों ही स्मार्टफोन की आदत छोड़ने को तैयार नहीं हैं। स्मार्टफोन निर्माता कंपनी वीवो और साइबर मीडिया रिसर्च की तरफ से अभिभावक बच्चों के रिश्तों पर स्मार्टफोन का असर संबंधी अध्ययन में यह जानकारी सामने आई है। वीवो स्विच आफ 2024' सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया गया है कि अभिभावक रोजाना औसतन पांच घंटे से अधिक तो बच्चे चार घंटे स्मार्टफोन पर अपना समय व्यतीत करते हैं। दोनों अपना अधिकतर समय इंटरनेट मीडिया और एंटरटेनमेंट एप पर बिताते हैं। 76 प्रतिशत अभिभावक और 71 प्रतिशत बच्चों ने सर्वे के दौरान यह माना कि वे स्मार्टफोन के बगैर नहीं रह सकते हैं। 64 प्रतिशत बच्चे मानते हैं कि उन्हें स्मार्टफोन की बुरी लत लग चुकी है। 60 प्रतिशत से अधिक बच्चों ने बताया कि अगर उनके दोस्त इंटरनेट मीडिया एप से हट जाएं तो वे भी इसका उपयोग छोड़ सकते हैं। तीन में एक बच्चे ने तो यहां तक कहा कि इंटरनेट मीडिया एप का आविष्कार ही नहीं होना चाहिए था। वीवो इंडिया के कारपोरेट स्ट्रैटजी हेड गीतज चन्नना कहते हैं कि तकनीक का इस्तेमाल सकारात्मक बदलाव और जिंदगी को आसान बनाने के लिए होना चाहिए। लेकिन स्मार्टफोन वास्तविक जीवन के रिश्तों में रुकावट बन सकता है। सर्वे से यह सवाल उठने लगा है कि स्मार्टफोन की इस दुनिया में परिवार कैसे सार्थक रिश्ते कायम हो सकता है। बच्चों में स्मार्टफोन की बुरी लत को देखते आस्ट्रेलिया में 16 साल तक के बच्चों द्वारा इंटरनेट के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है।
■ जिंदगी के मोड़
जिंदगी के रास्तों पर अनेक जगह चाहे- अनचाहे मोड़ आ जाते हैं, जिनका हमें पता नहीं चलता। किसी भी रास्ते पर सही जगह मुड़ने का खास महत्त्व है। वाहन चलाते हुए भी कई बार ऐसा हो जाता है। कि हम रास्ता भूल जाते हैं, सड़क पर आगे निकल जाते हैं और एकदम से बाएं या दाएं नहीं मुड़ सकते। हमें कुछ आगे जाकर वापस मुड़ने के लिए बनाई गई जगह या 'यूटर्न' से पीछे आना पड़ता है और सही रास्ता लेना होता है। खासकर लंबी दूरी की सड़कों पर कहीं भी मुड़ जाने की सुविधा हर कहीं नहीं होती । इस क्रम में कई बार काफी दूरी का सफर तय करना पड़ता 1 अपनी मर्जी से कहीं भी मुड़ जाने पर तेज रफ्तार सड़कों पर जोखिम से गुजरना या फिर जुर्माना देना पड़ सकता है। जिंदगी एक दिलचस्प, अप्रत्याशित घटनाओं और संभावनाओं से भरा सफर है। इसे सुरक्षित तरीके से तय करते रहने वाले भी अनेक बार गलती से आगे, इधर या उधर चले जाने के कारण थोड़ा पीछे आते हैं और फिर सही रास्ता अपना लेते हैं, ताकि आगे बढ़ते रहें। यों भी, सही रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए अगर थोड़ी दूरी भी तय करनी पड़े, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। बल्कि यह अपने हित में होता है। इस सफर में उचित स्थिति अपने मन की बात कहकर यह आकलन कर लेने की है कि आपके शब्द सामने वाले को बुरे तो नहीं लगे या कितने बुरे लगे । अगर माफी मांगना जरूरी है, तो वक्त की जरूरत के मुताबिक माफी मांग भी लेनी चाहिए। खुले दिल से माफी मांग ली जाए। संबंधों का पुल सलामत रहता है ।
जमाने से सुनते आए हैं कि तलवार का घाव भर जाता है, लेकिन जबान से निकले शब्दों से बना जख्म कभी नहीं भरता। हालांकि वक्त के साथ यह बात अपनी प्रवृत्ति बदल रही है । तो शब्द उन फलों की तरह हैं कि पहले भेंट कर दें, पता चले कि सामने वाले ने चख लिए, लेकिन स्वाद नहीं लगे तो फल वापस ले लिए जाएं। शब्दों में अब वह पुरानी बात नहीं रही। जिंदगी बाजार की गिरफ्त में है । कहे गए शब्द वापस लिए जा सकते हैं और उम्मीद करनी चाहिए कि इस तरह से सामने वाले को भी बेहतर लगने लगेगा । जिंदगी जीने के अंदाज सिखाने वाले कम नहीं हैं। राजनीति भी अब जिंदगी की प्रशिक्षक हो गई है। यह सिखाती है कि बात कैसे करते हैं । अवसर और परिस्थिति के अनुसार कौन-से स्वादिष्ट या बेस्वाद शब्द दूसरों को परोसने चाहिए । यह अभिनेताओं को अभिनय सिखा रही है। उन्हें समझाती है कि राजनीति में सिर्फ अभिनय नहीं करते, बल्कि बहुत समझदारी भरी कुटिलता से अभिनय करते हैं । काबिल अभिनेता भी अगर वांछित अभिनय न कर पाए, तो छोटा-सा संवाद वापस लेने के लिए मोड़ ढूंढ़ना पड़ता है। इससे मानसिक रूप से परेशानी होती है, भूख उड़ जाती है और आत्मा तड़पती है, फिर भी स्थिति ठीक होने का अभिनय लगातार करते रहना होता है। सही मोड़ काटना सीखते रहना होता है। दिग्गज व्यक्ति अनुभव के वस्त्र बदल-बदल कर, अभिनय करते-करते निर्देशक हो जाते हैं, लेकिन उन्हें भी नए मोड़ चुनने पड़ते हैं। शतरंज की बिसात पर नए मोहरे चलाना सीखना पड़ता है। कई मोड़ ऐसे भी आते हैं, जहां सार्वजनिक खेद प्रकट करना होता है।
देखा जाए तो अपनी गलती पर अगर सचमुच अफसोस नहीं है, तो खेद प्रकट करना भी कई बार सही अवसर पर किया गया कुशल अभिनय होता है। जिंदगी में हर तरह का किरदार निभाना होता है जो उसी तरह के अभिनय की मांग करता है। यहां करतब भी जरूरी होते हैं। स्थिति के अनुसार एक दूसरे को स्थिर या अस्थिर करने के लिए विश्वसनीय करतब करवाए जाते हैं और कई बार तो असली मारधाड़ भी जरूरी हो जाती है, जो करनी ही पड़ती है। यह जिंदगी का खतरनाक मोड़ होता है, जिस पर आमतौर पर सभी ठहरना नहीं चाहते। ऐसी जगह रुकना एक तरह की मजबूरी होती है। पीड़ित व्यक्ति अगर शांत रहे तो बेहतर, नहीं तो फिर अनुभवी मोड़ चुनना होता है। यह मोड़ होता है 'माफी मोड़', जहां अपनी गलती का अहसास करते हुए या फिर स्थिति को सामान्य करने के मकसद से माफी मांग ली जाती है। यह तारीफ के काबिल मोड़ होता है। सभी समझदार लोग इसकी तारीफ ही करते हैं। देखा जाए तो इससे दोनों काम हो जाते हैं। गुस्सा भी जाहिर कर दिया और माफी मांगकर स्थिति भी नियंत्रण में कर ली । माफी मांगते हुए अगर यह कह दिया जाए कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था या मेरे कहने का वह मतलब नहीं था तो भी तारीफ मिल सकती है। निजी जिंदगी में आराम से काटे गए मोड़ काफी राहत पहुंचाते हैं। अगर पत्नी और पति एक दूसरे को ऐसा कहते रहें तो अच्छा संवेदनशील व्यवहार माना जाता है, जिसमें रास्ते पर आगे जाकर मुड़कर लौटने की जरूरत नहीं पड़ती।
विकास के कारण बढ़ती आजादी ने हर एक को कुछ भी बोलने, देखने और करने का अधिकार दे दिया है, लेकिन आजादी के इस मोड़ पर कर्तव्य भुलाए जा रहे हैं। ड्राइविंग चाहे राजनीतिक, धार्मिक या पारिवारिक हो, ऐसी होनी चाहिए कि नियंत्रण बरकरार रहे। स्थितियों की आवाजाही उचित गति से चलती रहे। जहां मुड़ना है, उस जगह को भूला न जाए, ताकि आगे जाकर वापस आना न पड़े। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब [04) प्रदूषण से बढ़ता कैंसर का जोखिम विजय गर्ग भारत में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों में 22 प्रतिशत हिस्सा कैंसर का है। हाल ही में 'द लांसेट' में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में बताया गया है कि यह आंकड़ा पिछले एक दशक में दोगुना हो गया है। विशेष चिंता की बात यह कि इनमें युवा आबादी का प्रतिशत बढ़ रहा है। कैंसर के मामलों में तेजी से वृद्धि के कई बड़े कारण हैं, लेकिन प्रमुख रूप से जीवनशैली में बदलाव मुख्य रूप से जिम्मेदार है। वर्तमान में कैंसर का एक प्रमुख कारण प्रदूषण भी है। वस्तुतः आज वायु, जल एवं मृदा प्रदूषण अपने चरम पर है जिसकी वजह से कैंसर रोगियों की संख्या दिन- प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के कारण बढ़ते कैंसर के मामलों ने चिकित्सा जगत में चिंता पैदा कर दी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली लगातार तीसरे वर्ष विश्व की सबसे प्रदूषित राजधानी बनी हुई है, जहां पी. एम. 2.5 का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से 20 गुना अधिक है। ये आंकड़े करोड़ों लोगों के जीवन से जुड़ी एक भयावह वास्तविकता हैं। कैंसर विशेषज्ञों के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में फेफड़ों के कैंसर के मामलों में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जिनमें से 37 प्रतिशत मरीज ऐसे हैं जो कभी धूमपान नहीं करते थे। एम्स द्वारा वर्ष 2023 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली में प्रतिवर्ष लगभग 80 हजार लोग वायु प्रदूषण से संबंधित बीमारियों से प्रभावित होते हैं। वस्तुतः पराली दहन उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के एक नए कारक के रूप में उभर कर सामने आया है। एम्स और आइआइटी दिल्ली द्वारा 2023 में किए गए एक संयुक्त अध्ययन में यह पाया गया कि पराली के धुएं में बेंजीन, फार्मल्डिहाइड और पालीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसे कैंसरकारी तत्व मौजूद होते हैं। इन तत्वों की मात्रा सामान्य दिनों की तुलना में पराली जलाने के मौसम में छह गुना तक बढ़ जाती है। वायु प्रदूषण की भयावह स्थिति को देखते हुए कैंसर के कारकों का समाधान किए जाने पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
इसी संदर्भ में सरकार को पराली से होने वाले वायु प्रदूषण के कारकों के निवारण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि उससे उत्पन्न कैंसर की भयावहता को रोका जा सके। हालांकि, केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से वायु प्रदूषण को कम करने की दिशा में कई कदम उठाए गए हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा, ग्रीन कवर में वृद्धि और औद्योगिक इकाइयों पर कड़ी निगरानी आदि इनमें शामिल हैं। वहीं दूसरी ओर, वायु प्रदूषण की बढ़ती समस्या को देखते हुए संतुलित आहार, नियमित व्यायाम, शराब और तंबाकू से परहेज और स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर कैंसर के मामलों से बचा जा सकता है। विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब